Thursday 13 December 2012

कुछ भले भूतों की कहानी.......जयप्रकाश स‌िंह बंधु


बाल कहानी 
                     

मंच स‌जा हुआ था। एक बड़ा स‌ा बैनर स्टेज की शोभा बढ़ा रहा था- भूत-स‌म्मेलन। जगह-जगह शहर भर में यह प्रचार कर दिया गया था कि स‌म्मेलन पार्क में आज भूतों का स‌म्मेलन होने जा रहा है, इस अनोखे स‌म्मेलन को स‌ुनना न भूलें। जिसने भी इस विज्ञापन को पढ़ा,सुना, हैरान रह गया। कवि-सम्मेलन स‌ुना था, पर यह भूत स‌म्मेलन क्या है? पहले न कभी स‌ुना, न देखा और न ही कहीं पढ़ा। लोग एक दूसरे स‌े पूछते क्या स‌चमुच में यहां भूत आने वाले हैं? जानकार बताते हां भाई, भूतों को ही आमंत्रित किया गया है। आज आप भूतों को स‌ुन स‌कते हैं। अतः भूतों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी थी।

        बेनी प्रसाद स्कूल के मास्टर थे। वे जिस नौ मंजिला फ्लैट में रहते थे, उसी फ्लैट की छत पर शाम को अक्सर इन भूतों स‌े भेंट हो जाती थी। बेनी प्रसाद ने कभी इन भूतों को दृश्य रूप में नहीं देखाथा। पर उन्होंने अपने अंतर्मन की शक्ति स‌े स‌दैव यह महसूस किया कि यहां चार शक्तियां हैं जो रोज शाम को बैठती हैं, और गप्पे मारती हैं। चार किस्म की आवाज स‌े ही उन्होंने चार भूतों के होने अनुमान लगाया था। बेनी प्रसाद के पहुंचते ही पहले तो वे चुप हो जाते, फिर अपनी लय में आ जाते। कभी-कभी बेनी प्रसाद उन भूतों के प्रति स‌हानुभूति के दो शब्द कह दिया करते थे, ऎसे ही धीरे-धीरे उन भूतों की स‌हानुभूति भी मास्टर स‌ाहब स‌े हो गयी थी। जब चारों की कहानी को मास्टर स‌ाहब ने जाना तो उन्होंने तय किया कि क्यों न इन भूतों की कहानी को जनता के बीच उन्हीं के शब्दों में ले जाया जाय। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आयोजन किया गया था। भूतों को देखने व स‌ुनने के लिए मैदान खचाखच भरा हुआ था। 

       बेनी प्रसाद ने आयोजन का प्रारंभ करते हुए लोगों को यह स‌ूचना दी - मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि हमारे आमंत्रण पर चार भूत महोदय आज हमारे बीच उपस्थित हो चुके हैं। ऎसा स‌ुनते ही स‌म्मेलन पार्क में एक हल्ला उठा। कहां...कहां...किधर...लोग उत्सुक थे कि किसी तरह स‌े उन्हें भूत दिख जाय। मंच पर चार कुर्सियां लगी हुई थीं। उसके आगे मेज स‌फेद कपड़े स‌े ढ़का हुआ था, जिस पर चार पानी के ग्लास थे। उसे ढंक कर रखा गया था ताकि बेचारे भूतों को किसी तरह का इंफेक्शन न हो जाए। एक स‌ुंदर स‌ी स्त्री थाल में फूलों की माला लिए खड़ी थी। माल्यार्पण के लिए शहर के विधायक जी भी तैयार थे। पर भूतों का कहीं भी अता-पता नहीं था....

       बेनी प्रसाद ने कहा, मैं विधायक श्री ललन पहलवान जी स‌े आग्रह करता हूं कि वे हमारे आमंत्रित भूत महोदयों को माला पहना कर हार्दिक स्वागत करें। ललन पहलवान के हाथों में माला आती गयी और उन्होंने एक-एक करके स‌ब भूतों को माला पहना दी। अब तक दृश्य पूरी तरह स‌े बदल चुका था। लोग दांतो तले अंगुली दबाने को मजबूर थे क्योंकि कुर्सी के आगे चार मालाएं जिस प्रकार स‌े भूतों की गर्दन में लटक रही थीं उससे यह साफ पता चल रहा था कि भूत वहां मौजूद हैं। हवा में यूं ही माला तो लटक नहीं स‌कती थी। अब पार्क में स‌न्नाटा था। स‌ब अगले पल घटने वाली घटना पर टकटकी लगाए हुए थे।
       स्वागत स‌मारोह खत्म होने के बाद बेनी प्रसाद ने एक भूत का परिचय देते हुए कहा, अब मैं हाथ काटा दा को माइक पर आकर कुछ कहने की गुजारिश करता हूं। आप एक क्लब के एक्टिव मेम्बर थे। पर गंगा में डूबने स‌े आपकी अकाल मृत्यु हो गयी। अब आप भूत का जीवन बड़ी भद्रता व शालीनता के स‌ाथ जी रहे हैं। आप हमसे कुछ कहना चाहते हैं, स्वागत है..आइए...

      नमस्कार बंधुओं। लोग मुझे हाथ काटा दा के नाम स‌े जानते थे। मार-पीट में मेरी कई उंगलियां कट गयीं, फिर बाद में बम स‌े मेरा हाथ ही उड़ गया। इसी स‌े मेरा यह नाम पड़ा। ...पर आज तक मैंने किसी के हाथ नहीं काटे। किसी प्रकार की गलत फहमी में न रहिएगा। हां मैं जब जीवित था तब क्लब वालों के स‌ाथ खूब मूर्ति-पूजा करता था। दुर्गा-पूजा, काली-पूजा, जगत्धार्ती-पूजा, स‌रस्वती-पूजा....। कोई भी पूजा बाद नहीं जाता था। चंदा वसूली करता। कभी-कभी लोगों स‌े जबरदस्ती भी करनी पड़ती थी। थोड़ा बहुत हमलोग दादा-गीरी भी दिखाते थे, और मन-भर चंदा उगाह लेते।.....लोगों ने देखा कि स‌ेवकों ने भूत को पानी पिलाया...लोगों ने बड़ी उत्सुकता स‌े भूत हाथ काटा दा को पानी पीते हुए देखा।.....लोग उनकी स‌च्ची-सच्ची बातें बड़े ध्यान स‌े स‌ुन रहे थे जिसे जीते जी क्लब वाले कभी स्वीकार नहीं करते। 

      भूत ने आगे कहा, पूजा के दौरान हमलोग जोर-जोर स‌े माइक बजाते, ढ़ाक पीटते और लोगों का जीना हराम कर देते थे।....दर्शकों के बीच हंसी का गुब्बारा फूटा... भूत ने भी स‌ांस लेकर कहा, फिर हमलोगों का खावा-दावा (भोज) चलता। और क्या चाहिए था। इसलिए तो पूजा होती थी। विसर्जन के स‌मय हमलोग बेढ़ंगें गीत पर बेढ़ंगा डांस करते हुए जुलूस निकालते। स‌ड़क जाम करने पर गर्व महसूस होता। और नाचते-नाचते काली मां को गंगा में डुबो आते। पर उस दिन मेरे स‌ाथ एक दुर्घटना घट गयी। ...काली जी की विशाल मूर्ति थी। उस स‌ाल हमलोग उसे एक नाव पर लेकर गंगा के बीच में विसर्जित करना चाहते थे। स‌ब कुछ ठीक-ठाक ही था। जैसे ही विसर्जन के लिए काली जी को लोगों ने हाथ लगाया, नाव ही पलट गयी। काली जी हमी पर आ गयी। फिर क्या था, काली जी ने अपने स‌ाथ स‌ाथ मुझे भी जल स‌माधि में लेने का फैसला कर लिया था। और मैं डूब कर मर गया।

      भूत महोदय ने मीठे अंदाज में ऎसी त्रासद कथा स‌ुनाई कि स‌बको उस पर दया आ गयी। चारों तरफ एकदम शांति थी। भूत ने अपने वक्तव्य को स‌मेटते हुए कहा, अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि जब तक मैं जीवित था, मूर्ति-पूजा में ही फंसा रहा। उस दिन मां काली ने भी मुझे नहीं बचायाथा। बल्कि मेरी जान तो उसी ने ली। इस मूर्ति पूजा में कुछ भी नहीं रखा भाई। स‌ब बेकार का ढोंग है। थोड़ा ठंडे दिमाग स‌े आपलोग भी स‌ोचिएगा कि इतनी मूर्तियां जो हमलोग गंगा या किसी नदी में डालते हैं तो इससे क्या नदी गंदी नहीं होती? आखिर उसी नदी का पानी हमलोग पीते हैं फिर उसे इस तरह गंदा करने का अधिकार हमें किसने दिया? फिर पूजा-पाठ की स‌ामग्री, फूल, पॉलीथीन आदि स‌ब हमलोग नदीं में ही क्यों फेंकते हैं? यह कौन स‌ी स‌भ्यता है?.....देखिए मेरे स‌ाथ एक दस वर्षीय बच्चा भूत भी आया हुआ है। यह अपने पिता का एकमात्र पुत्र था। कहानी एकदम स‌च्ची है। आज भी इसका पिता डाब (नारियल पानी) बेचता है। उनके यहां स‌रस्वती पूजा हुई थी। फिर बाप-बेटा मूर्ति लेकर गंगा किनारे आए। हावड़ा में गंगा किनारे पर ही इतनी गहरी है कि हाथी डूब जाय। अतः बाप-बेटों ने मूर्ति दोनों हाथों स‌े पकड़ी और झूले की लय में झटके के स‌ाथ बाप ने मूर्ति को गंगा में फेंक दिया। बाप ने तो हाथ स‌मय पर छोड़ दिया पर बेटा मूर्ति को पकड़े रह गया। फिर क्या था, स‌ंतुलन बिगड़ गया और मूर्ति के स‌ाथ-साथ बच्चे का भी विसर्जन हो गया।...बाप चिल्लाता रह गया, बच्चा डूब गया।  ....आपने मेरी बात ध्यान स‌े स‌ुनी इसके लिए धन्यवाद। भूत महोदय अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गए।

       बेनी प्रसाद ने स‌ार्थक वक्तव्य रखने के लिए भूत को धन्यवाद दिया और यह आशा प्रकट की कि लोग जरूर हाथकाटा दा जैसे मूर्ति पूजक के पछतावे पर गौर करेंगे। अपना जीवन बेहतर ढंग स‌े बिताएंगे।
      आगे उन्होंने डॉ. माल पानी को आमंत्रित करते हुए कहा, अब हमारे स‌ामने जो भूत महाशय आ रहे हैं वे पेशे स‌े एक डॉक्टर थे। अब आप मात्र एक भूत हैं। आप हमसे कुछ कहना चाहते हैं....आइए....
     भूत डॉ माल पानी ने माइक स‌ंभालते ही कहना शुरु किया, मुझे लोगों की स‌ेवा का मौका मिला था। पर मैं रूपया के पीछे ऎसा भागा कि मैं अपने पेशे स‌े बहुत दूर चला गया। जब भी मेरे पास कोई रोगी आता मैं उसके रोग को देखने के बजाय उसकी हैसियत का अंदाजा लगाता। उसकी स‌ुनता कम फटाफट मंहगी-मंहगी एंटीबॉयटिक दवाएं लिख देता। कुछ दिनों के बाद उसे दुबारा आना पड़ता तो लगभग स‌भी टेस्ट लिख देता जिसकी कोई आवश्यकता न होती थी। मुझे इसका कमीशन मिल जाता। इस तरह मैं महंगी कम्पनियों व क्लिनिक का एजेंट बनकर रह गया। इस तरह स‌े मैं माल पानी खूब माल बनाता रहा और उधर बेचारे रोगी मेरी महंगी, पावरफुल दवाइयां खा-खाकर अपने अंग खराब करते रहे। कइयों की तो मौत भी अधिक दवाई खाने स‌े हो गयी। इस प्रकार मैं अपने रोगियों को त्राण देने के बजाय उनका खून ही चूसता रहा। यदि मैं अपने काम के प्रति ईमानदार रहता तो भगवान बन स‌कता था पर मैं य़मदूत बन गया। स‌च कहता हूं मैंने अपना जीवन बर्बाद कर दिया......मैंने काम ही ऎसा किया है कि पछतावा के अलावा और कुछ कर भी नहीं स‌कता। आज मुझे उन डॉक्टरों स‌े ईर्ष्या हो रही है जो बड़ी ईमानदारी स‌े अपनी स‌ेवा दे रहे हैं। डॉक्टरों का, वकीलों का, मास्टरों का क्षेत्र सेवा का  क्षेत्र है।.... मुझे यह स‌मझ में नहीं आता कि मरने के बाद  ही लोगों को क्यों स‌मझ में आता है? जीते जी पढ़े लिखे लोग भी अपने मिशन स‌े भटक क्यों जाते हैं? ....मैं आपका स‌मय अब ज्यादा नहीं लूंगा। और भी वक्ता लोग इंतजार कर रहे हैं। धन्यवाद।
      बेनी प्रसाद ने कहा, डॉ माल पानी ने जिस ईमानदारी स‌े अपनी गलतियों को स्वीकार किया वह काबिले तारीफ है। हमें अपनी गलतियों को जरूर स‌ुधारना चाहिए। आशा है जो डॉक्टर अपने पेशे स‌े भटक कर रोगियों का खून चूस रहे हैं वे डॉ माल पानी स‌े कुछ स‌ीखेंगे।
     अब मैं एक ऎसे वक्ता को बुलाने जा रहा हूं जिसे हम खा-खाकर अघा जाते हैं। आप फलों के राजा आम महाराज हैं। आपकी पत्तियां, लकड़ी, फल स‌ब पूजनीय है। आप बड़े पवित्र हैं। पर एक दिन लोगों ने आपकी हत्या बड़ी निर्ममता स‌े कर दी। आपका दुख हम आपके ही मुख स‌े स‌ुनना चाहेंगे। ...आइए..स्वागत है आपका...

     किसी जमाने में मैं एक विशाल पेड़ हुआ करता था। मेरी घनी छाया में न जाने कितने लोग आकर बैठते, स‌ोते। बच्चे मेरी छत्र-छाया में खूब खेलते। जब भी कोई उत्सव होता लोग मेरी पत्तियां तोड़ कर ले जाते, लकड़ियां काट ले जाते। मैंने कभी मना नहीं किया। मैं खूब फलता। कच्चा आम का मजा तो लोग लेते ही, पक कर भी मैं लोगों को स‌ुख देता। फिर मैं जिस गांव में पड़ता था उसका भी दुर्दिन आ गया। कलकता फैलता हुआ यहां तक आ पहुंचा। मैं भी शहरीकरण का शिकार हो गया। प्रोमटरों की नजर उस जमीन पर पड़ गयी जिस मैंने कई जमाना देखा था। एक दिन मुझे मुड़ दिया गया। फिर जड़ स‌े धड़ अलग कर मेरी हत्या कर दी गयी। मनुष्य की इस क्रूरता पर मैं खूब क्रोधित हुआ। पर कर ही क्या स‌कता था?...किसी जमाने में मैं स‌बको छाया देता था, पर आज मैं बेनी प्रसाद की बिल्डिंग की छत पर छाया पाने के लिए स‌ंघर्ष कर रहा हूं।

     आम के पेड़ ने फिर कहना शुरु किया। बंधुओ... मेरी समझ में यह नहीं आता कि जो शहर वासी अपने को इतना आधुनिक स‌मझते हैं वे हम पेड़ों को शहर स‌े बाहर निकालने पर क्यों आमदा हैं? शहरों में हमलोगों के लिए जगह क्यों नहीं छोड़ी जा रही है? बल्कि उन्हें तो गलियों में भी हर घर के स‌ामने पेड़ लगाना चाहिए। मुख्य स‌ड़क के दोनों ओर हमलोगों के लिए जगह अवश्य होनी चाहिए। बिन पेड़ों के जिस शहर की परिकल्पना आज के प्रोमोटर, स‌रकार आदि कर रहे हैं वह मानवता के खिलाफ है। स‌ुप्रीम कोर्ट को दखल देते हुए कड़ा कानून बनाना चाहिए ताकि हमलोगों को शहरों स‌े बेदखल करना रोका जा स‌के। मैं मास्टर स‌ाहब को धन्यवाद देता हूं जिन्होंने ऎसी व्यवस्था की कि आज हमें भी स‌ुना गया।...आप स‌भी को इस भूत का नमस्कार।

      बेनीप्रसाद ने आम को धन्यवाद दिया और अपने अंतिम वक्ता को बुलाया। परिचय देते हुए कहा, आप एक अच्छे स‌िविल इंजीनियर थे।उस दिन आप एक मल्टी-स्टोरी बिल्डिंग के इंस्पेक्शन पर थे कि अचानक पूरी इमारत ही धराशायी हो गयी और आप मारे गए।भटकते-भटकते आज आप इन्हीं भूतों के स‌ाथ रहते हैं। आज आप हमलोगों स‌े कुछ कहना चाहते हैं...आइए..अपने विचारों स‌े हमारा मार्ग-दर्शन कीजिए...

     इंजीनियर जॉन स‌ाहब ने माइक स‌ंभाला। उनकी बात स‌ुनकर स‌भी लोग डर गए। उन्होंने कहा, प्रिय शहरवासियों...आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि गांवों की अपेक्षा जितने भी बड़े-बड़े शहर हैं वे विनाश के कगार पर खड़े हैं। कारण स‌ीधा-सा है। बड़े-बड़े शहरों की ऊंची-ऊंची इमारतों के लिए लगातार जो जमीन स‌े पानी निकाला जा रहा है उससे धरती खोखली हो रही है। शहरों की स‌ड़कें, फुटपाथ, नालियां स‌भी पक्की हैं। मतलब कहीं स‌े भी बरसात का पानी जमीन के अंदर नहीं जा रहा है। स‌ब बह कर नालियों द्वारा शहर के बाहर चला जा रहा है। स‌रकार, या स‌ुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं यह अनिवार्य करती कि छत के पानी को वहीं जमीन के भीतर भेजने की कोई कारगर व्यवस्था अपनायी जाय। ऎसा हम एक कुआं खोदकर, उसमें बालू ईंटा भर कर छत की पाइप स‌े कनेक्ट कर ऊपर स‌े बंद कर किया जा स‌कता है। जैसा कि मेरे आम भाई ने कहा, कि शहरों में यदि पेड़ों को स्थान नहीं मिलेगा और बरसात में पानी यदि धरती में नहीं स‌माएगा तो जगमग करने वाली इस शहरी स‌भ्यता का भविष्य कितना स‌ुरक्षित रह जाएगा?  सब कुछ भूकम्प के एक झटके में नेस्ता-नाबूद हो स‌कता है।...यह हम शहरवासियों को गंभीरता स‌ोचना चाहिए।...हमलोग तो ठहरे भूत... भविष्य को तो वर्तमान ही बचा स‌कता है। अब आप ही लोग कुछ कर स‌कते हैं।...धन्यवाद।

     लोगों ने खूब ताली पीटी।.....भूतों ने इतनी अच्छी-अच्छी बातें जो कही थीं। अंत में विधायक महोदय ने बेनीप्रसाद और अतिथि स‌भी भूतों को धन्यवाद दिय़ा। बेनीप्रसाद को विशेष रूप स‌े धन्वाद दिया गया जिन्होंने ऎसा अनोखा आयोजन शहर में पहली बार सफलता स‌े करवाया था।
                                                                 ***

Saturday 8 December 2012

काशी वैद्य की शीशी



काशी वैद्य की शीशी........कृष्णेन्दु देव

Kashi Vyadir Shishi.....Krishnendu Dev
    अनुवाद- जयप्रकाश स‌िंह बंधु

      संतो के कमरे के स‌ामने आकर काकी ने चिल्लाकर कहा, क्यों रे स‌ंतो! चारों वेला केवल खाएगा ही? काका जी की थोड़ी बहुत भी मदद नहीं करेगा? तुम्हें दुकान पर जाने के लिए मैंने कब का कहा था। और तू है कि केवल किताब लेकर ही बैठा हुआ है? तुम्हारे पास लज्जा नाम की कोई चीज है कि नहीं?

     स‌ंतो ने काकी के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। तत्काल पुस्तक रखी और बाजार के लिए चल पड़ा। बाजार में काका की कपड़े की एक बड़ी दुकान थी। आज काका को बड़ा बाजार जाना था। इसलिए स‌ंतो को  दोपहर में दुकान पर बैठना था। रास्ते में स‌ंतो स‌ोचता जा रहा था कि आज भी स्कूल जाना नहीं हो स‌का। अगले वर्ष उसे माध्यमिक की परीक्षा देनी है। इस तरह प्रायः स्कूल न जा स‌कने स‌े नुकसान अधिक हो रहा है। किंतु उपाय भी तो नहीं है। वह तो काका काकी की दया पर पल रहा है। भोजन और वस्त्र जो मिल रहा है। उनकी बात नहीं स‌ुनेगा तो किसकी स‌ुनेगा?

          असल में स‌ंतो के माता पिता नहीं हैं। पिता को उसने बचपन में ही खो दिया। मां ने कष्ट स‌हकर स‌ंतो को बड़ा किया । पर वह भी पिछले वर्ष हठात् पीलिया (जंडीस) का शिकार हो गयी। मां के जाने के बाद तो स‌ंतो पर मानो विपत्ति का पहाड़ ही टूट पड़ा।

              स‌ंतो के काका निश्चय ही अच्छे इंसान नहीं हैं। स‌ंतो की मां के मरने के बाद काका ने चाहा था कि वह अपने मामा के पास जाकर ही रहे। किंतु स‌ंतो ने किसी भी कीमत पर इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। क्योंकि मृत्यु के पहले मां ने स‌ंतो को यह अच्छी तरह स‌े स‌मझा दिया था कि यदि वह एक बार इस घर स‌े निकल गया तो फिर इस पैतृक स‌ंपति पर उसका दखल दुबारा नहीं हो स‌केगा।
        इधर स‌ंतो के अपने मामा के यहां न जाने स‌े काका बड़ी उलझन में पड़ गए। पटासपुर के निवासी यही जानते हैं कि उन्होंने अपने कपड़े के व्यवसाय स‌े खूब धन कमाया है। इस अवस्था में यदि वे एकमात्र लावारिस भतीजे के भरण-पोषण का भार अपने ऊपर नहीं लेंगे तो पूरा गांव उन पर थूकेगा। गांव में चलना-फिरना बंद हो जाएगा। इसी लोक-लज्जा व स‌ामाजिक दवाब में आकर उन्हें स‌ंतो का दायित्व अपने ऊपर लेना पड़ा। पर दो मुट्ठी दाल-भात के बदले उन्होंने स‌ंतो स‌े जिस प्रकार स‌े काम करवाना शुरु किया उसका बयान ही नहीं किया स‌कता। जूता स‌िलाई स‌े लेकर चंडी-पाठ तक स‌ब कुछ स‌ंतो को करना पड़ता। कुछ भी नहीं छूटता था। उधर उनकी स‌हधर्मी यानि कि काकी भी काका स‌े किसी भी मायने में पीछे नहीं थी। वह हर पल स‌ंतो को यह याद दिलाती रहती थी कि वह काका की दया पर ही जिंदा है।
                              स‌ंतो अपने काका के यहां हाड़ तोड़ देने वाला परिश्रम करता और काकी की गंजना को आंख मूंदकर इसलिए स‌हता ताकि वह अपनी पढ़ाई जारी रख स‌के। गाछ दादू ने भी स‌ंतो को यह अच्छी तरह स‌े स‌मझा दिया था कि किसी भी तरह स‌े यदि वह माध्यमिक परीक्षा को पास कर लेता है तो उस‌के जीवन के स‌भी कष्ट दूर हो जाएंगे। उनके एक स‌हृदय मरीज हैं जो बहुत ही धनी हैं। वे ही स‌ंतो का दायित्व भार अपने कंधों पर ले लेंगे। तब स‌ंतो को किसी प्रकार का दुख स‌हन नहीं करना पड़ेगा।
        स‌ंतो जिसे गाछ दादू कहकर बुलाता है वो असल में उसकी मां के दूर के रिश्ते में काका लगते हैं। उनका नाम काशी नाथ वैद्य है। पेशे स‌े वे कविराज हैं। पटासपुर के स‌भी लोग उन्हें काशी वैद्य के नाम स‌े पहचानते हैं। दूर-दूर तक उनका कोई रिश्तेदार नहीं है। इसलिए स‌ंतो पर ही वे अपना स्नेह लुटाते हैं। मां के मरने के बाद स‌ंतो की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उन्होंने ही उठा रखा है। 
          गाछ दादू नाम स‌ंतो का ही दिया हुआ है। असल में स‌ंतो बचपन स‌े ही अपने दादू को दिन-रात पेड़-पौधों में ही मग्न रहते देखता आया है। इसलिये उसने ऎसा नामकरण किया है।
     खैर जो भी हो। उस दिन स‌ंतो को काका की दुकान स‌े मुक्ति मिलते-मिलते शाम हो गयी थी। पता नहीं क्यों, उसे घर लौटने की इच्छा नहीं हुई। वह स‌ीधे अपने गाछ दादू को पास चला गया। काशी वैद्य तब अपने बरामदे में किसी पौधे की पत्तियों को खल में कूट कहे थे। स‌ंतो को देखते ही उन्होंने पूछा,क्या हाल है ? 
       असल में स‌ंतो को देखते ही वे इसी प्रकार स‌े पहले उसका हाल-चाल जानने के आदि हो चुके हैं। स‌ंतो को गुमसुम देखकर उन्होंने स‌मझ लिया कि उसका मन खराब है। अतः उत्तर की प्रतीक्षा न करते हुए उन्होंने फिर पूछा, देखकर तो यही लगता है कि तुम्हें खूब भूख लगी है। घर के भीतर जाकर देखो, एक गुच्छा केला रखा हुआ है। आज स‌वेरे ही मेरे एक आत्मीय रोगी ने दिया था। दो केला खा लो।
     मैं नहीं खाऊंगा, स‌ंतो ने स‌िर झुका कर उत्तर दिया।
     क्यों नहीं खाओगे ? नहीं खाने स‌े पढ़ाई-लिखाई किस प्रकार स‌े स‌ंभव हो स‌केगी?
    संतो ने अपने गाछ दादू के इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने पूछा, अच्छा गाछ दादू, तुम मुझे इतना प्यार क्यों करते हो?
      गाछ दादू ने हंसते हुए उत्तर दिया, स‌ुनो पागल की बात। तुमको प्यार नहीं करेंगे तो किसको करेंगे? तुम पढ़ने-लिखने में कितने अच्छे हो। इसके अलावा तुम्हारा व्यवहार भी किसी के स‌ाथ खराब नहीं है। हमेशा बड़ों की बात मानते हो। और स‌बसे बड़ी बात यह कि तुम झूठ कभी नहीं बोलते। इसलिए केवल हम ही क्यों, पटासपुर के स‌भी तुम्हें चाहते हैं।

     ये स‌ब बातें स‌ुनकर स‌ंतो ने कहा, मां कहती थी कि जो किसी को कष्ट नहीं देता, झूठ नहीं बोलता, उसे किसी प्रकार का दुख नहीं रहता। तब गाछ दादू मुझे इतना कष्ट क्यों है?
     काशी वैद्य ने तब स‌ंतो को आश्वस्त करते हुए कहा, मैंने तो तुम्हें पहले ही कहा है कि मैंने तुम्हारे लिए व्यवस्था कर रखी है। तुम केवल माध्यमिक परीक्षा अच्छी तरह स‌े पास कर लो फिर देखना तुम्हारा स‌ब दुख दूर हो जाएगा। ले, पहले यह केला खा ले। इधर आ, मैं तुझे एक नया पौधा दिखाता हूं जिसे मैंने बड़े परिश्रम स‌े खोजा है।

       नए पौधे की बात स‌ुनकर स‌ंतो खुश हो गया। केला खाते-खाते वह नूतन पौधे को देखने के लिए गाछ दादू के पास बैठ गया। काशी वैद्य प्रायः ही स‌ंतो को नए-नए पौधों की कहानियां स‌ुनाया करते थे। किस लता के क्या गुण हैं, किस पत्ते में क्या शक्ति है, यह स‌ब स‌ंतो बड़े चाव स‌े स‌ुना करता था। 
       काशी वैद्य असल में गाछ-पाला के पीछे पागल रहने वाले व्यक्ति हैं। पेशे स‌े कविराज होने के कारण केवल जड़ी-बूटी में ही रुचि नहीं रखते वरण स‌भी प्रकार के पौधों में उनकी स‌मान भाव स‌े रुचि है। खेतों, मैदानों, जंगलों की खाक छानते हुए विरल स‌े विरल प्रजाति के पौधों को खोज निकालना उनका नशा है। उनका पूरा दिन जंगलों में इन पेड़-पौधों के स‌ंधान में ही बीतता है। किसी विरल प्रजाति की लता को पाने के लिए वे बीस फुट के ऊंचे पेड़ के शीर्ष तक पहुंचने की  क्षमता रखते हैं।  या फिर कहीं दस मील दूर पैदल चलकर वहां पहुंच जाते हैं जहां उन्हें किसी अति पुराने घर का स‌ंधान मिला होता है। खण्डहर घर के अंदर तक वे पहुंचने में जरा भी नहीं हिचकते।

       केवल विरल प्रजाति के पौधों को पाकर ही वे स‌ंतुष्ट नहीं हो जाते बल्कि वे उसके गुणों की परीक्षा अपने घर की प्रयोगशाला में करते हैं। संतो को तो कभी-कभी लगता है कि उसके गाछ दादू एक वैज्ञानिक हैं। उसके ऎसा स‌ोचने का निश्चय ही कारण है। पटासपुर में मच्छरों का आतंक है। एक बार गाछ दादू ने स‌ंतो को एक पौधे की पत्तियों को देते हुए कहा था कि इसके रस को हाथ-पैर में अच्छी तर स‌े मल लेना, फिर देखना। स‌ंतो ने घर आकर ऎसा ही किया था। स‌त्य ही तो। उस दिन संतो के पास एक भी मच्छर नहीं फटका था।

       खैर, नए पौधे की कहानी स‌ुनकर स‌ंतो जब घर लौटा तब तक शाम ढल चुकी थी। उसे देखते ही काकी चिल्ला पड़ी, इतनी देर बाद बाबू के लौटने का स‌मय हुआ? कहां जाना हुआ था, थोड़ा स‌ुनें तो?

      स‌ंतो अपने गाछ दादू के यहां गया था, यह स‌ुनते ही काकी गुस्से स‌े बिफर पड़ी। दिन-रात उस बूढ़े के पास जाकर पड़ा रहने स‌े काम चलेगा? घर का काम-काज कुछ करना होगा कि नहीं? अभी जाकर उस नन्ही बहन को स‌ंभालो। मैं चली रसोई बनाने। रात के लिए खाने की व्यवस्था तो करनी पड़ेगी न। यही स‌ब बात स‌ुनाते हुए काकी अपने तीन स‌ाल की कुशी को स‌ंतो के जिम्मे दे हनहनाते हुए रसोई घर में घुस गयी।

       स‌ुबह स‌े ही स‌ंतो को काका के कामों में हाथ बंटाना होता था। उसका मन उसमें बिल्कुल न लगता था पर स‌ब मजबूरी में करना पड़ता था। पर प्रतिदिन स‌ंध्या की वेला में अपनी चचेरी बहन कुशी के स‌ाथ होना उसे अच्छा लगता था। वह भी स‌ंतो को पसंद करती थी। इस छोटी स‌ी उम्र में उसने बहुत कुछ स‌ीख लिया था। रोज वह स‌ंतो भईया को कविता स‌ुनाती। स‌ंतो की कॉपी पर गिजमिज कर लिखती। स‌ंतो भी बहन के स‌ाथ खूब खेलता। उसे कहानी स‌ुनाता। बीच-बीच में उसे घुमाने ले जाता। शायद इसी प्यारी बहन के कारण वह इतना कष्ट स‌हते हुए भी इस घर में टिका हुआ था।

     उस दिन रात को भोजन के उपरांत स‌ंतो ने प्रतिदिन की भांति अपनी स‌ंदूक खोली। उस बक्से में मां के स्मृति-चिह्न रखे हुए थे। मां का चित्र, चश्मा, स्वेटर बुनने का कांटा, स‌ुपारी काटने का स‌रौता, एक टेबल-क्लथ जिस पर स‌ंतो का नाम लिखा हुआ था। और भी स‌ामान स‌ंदूक में थे जिन्हे निकाल कर स‌ंतो देखा करता था। इस प्रकार वह मां का स‌ान्निध्य पाने की चेष्टा करता था। फिर स‌ब कुछ बक्से में बंद हो जाता और अपनी पढ़ाई में रम जाता था।

        उस दिन स‌ंतो का मन पढ़ाई-लिखाई मों बिलकुल नहीं लग रहा था। बार-बार गाछ दादू की बातें याद आ रहीं थीं। आज उन्होंने स‌ंतो को जो पौधा दिखाया था, उसकी क्षमता अविश्वसनीय थी। उस विशेष पौधे के स‌ाथ एक दो जड़ी-बूटी मिला देने मात्र स‌े ही गाछ दादू के अनुसार एक ऎसी दवा बन जाएगी जिससे स‌ब चमत्कृत हो जाएंगे। स‌ंतो के बार-बार पूछने पर भी गाछ दादू ने कौन स‌ी दवा बनेगी, नहीं बताया था।

       खैर, जो भी हो। इस तरह काका के यहां वह बेगारी करता हुआ, काकी के कटु वचनों को स‌ुनता-सहता वह दिन बिताए जा रहा था। लेकिन भाग्य का लिखा कौन टाल स‌कता है? रात का वक्त था। स‌ंतो अपने कमरे में गणित बना रहा था।  देर रात दरवाजे स‌े किसी के आने की आहट स‌ुनाई पड़ी। काका-काकी तो पहले ही दीया बुझा कर स‌ो चुके थे। तब भला कौन हो स‌कता है? डरते हुए स‌ंतो ने दरवाजा खोला। गाछ दादू ने भीतर आकर धीरे स‌े दरवाजा बंद कर दिया। इतनी रात गए गाछ दादू को देख स‌ंतो आश्चर्य में पड़ गया था। पूछा, इतनी रात में आप यहां? कोई विपत्ति आ पड़ी है क्या? 

      काशी वैद्य ने दबे स्वर में बताया, ना ऎसा कुछ नहीं है। असल में कई दिनों स‌े कुछ दुष्ट लोग मेरे पीछे पड़े हुए हैं। उन्होंने न जाने कैसे यह जान लिया है कि मेरे पास  कोई अद्भुत दवा का राज है। वही हमसे लेना चाहते हैं। किंतु वह चीज मैं उनलोगों को कतई नहीं देना चाहता। मरने पर भी नहीं।

       वह कौन स‌ी वस्तु है दादू? ...वह मैं स‌मय आने पर तुझे बताऊंगा। आज मैं तुम्हें यह छोटी स‌ी शीशी दे रहा हूं। तुम इसे स‌ंभाल कर रख दो। ध्यान रहे कोई देख न ले और कोई इसके स‌ंबंध में जान भी न पाए।

      उस शीशी में क्या है गाछ दादू ?

      अभी तुम्हें जानने स‌े कोई लाभ नहीं है। स‌मय आने दो मैं स‌ब बताऊंगा। ले, अभी यह शीशी स‌ंभाल कर रख दे। भूल कर भी इस शीशी का ढक्कन खोलने की कोशिश न करना। और हां, आज मैं तुम्हारे पास आया था यह बात भी किसी को नहीं बताना।

       स‌ंतो ने शीशी स‌ंभाल कर अपने बेस कीमती बक्से में रख दिया। गाछ दादू ने स‌ंतो की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, कितनी भी बड़ी विपत्ति क्यों न आ जाए, तुम अपनी पढ़ाई-लिखाई मत छोड़ना। तुझसे मुझे ढ़ेर स‌ारी आशाएं हैं। एक बात दिमाग में रखना, जो लोग हमेशा स‌त्य के पथ पर रहते हैं, जीवन के युद्ध में अंत तक उन्हें स‌फलता जरूर मिलती है। 

      काशी वैद्य की बातों को स‌ंतो उस दिन ठीक-ठीक स‌मझ नहीं पाया था। किंतु जल्दी ही कोई बड़ी विपत्ति आने वाली है, इसका आभास उसे हो गया था। और ठीक ही, इस घटना के दो महीने बाद स‌ंतो के गाछ दादू अचानक एक दिन लापता हो गए। बहुत खोजने पर भी कोई स‌ंधान न मिला। उसने गाछ दादू के घर जाकर देखा कि किसी ने उनके घर को तोड़-फोड़ कर तहस-नहस कर दिया है। पटासपुर के लोगों स‌े स‌ंतो को यह जानकारी मिली कि कुछ लोग गाछ दादू को उठा कर ले गए हैं।

        गाछ दादू ने स‌ंतो को पहले ही बता दिया था कि कुछ लोग उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं। अतः स‌ंतो को यह स‌मझते देर न लगी कि उसके गाछ दादू का अपहरण हो चुका है। और लोग उन्हें मार देंगे। उसे कुछ स‌ूझ ही नहीं रहा था। कष्ट स‌े उसकी छाती फटी जाती थी। उसका एक मात्र स‌हारा गाछ दादू ही तो थे। उनके बगैर वह पढ़ाई-लिखाई कैसे जारी रख स‌केगा ? अब परीक्षा देकर ही क्या होगा ? गाछ दादू के आत्मीय पैसे वाले मरीज उसे कैसे पहचान स‌केंगे? यही स‌ब स‌ोच कर उसके स‌ामने अंधेरा छा गया।

        अनमयस्क भाव स‌े टहलते-फिरते वह अपने घर पहुंचा। कमरे में जाकर बक्सा खोला। हाथ में उस छोटी स‌ी नीली शीशी को लेकर देखने लगा जिसे गाछ दादू ने स‌ंभाल कर रखने दिया था। पर शायद ही अब वे इसे लेने आ स‌केंगे। ऎसा भाव आते ही उसकी आंखों स‌े आंसू झरने लगे। वह भावुक होता गया। आंसू थे कि थमने का नाम ही न लेते थे। वह स‌मझ गया, आज वह एकदम अकेला रह गया है। अभिभावक विहीन। अब उसे प्यार करने वाला, स‌ाहस देने वाला कोई नहीं रहा। 

        विपत्ति कभी बोलकर नहीं आती। और जब आती है तब चारों ओर स‌े आती है। गाछ दादू के गायब होने के एक स‌प्ताह के भीतर काकी का एकमात्र भाई उस घर में जहर घोलने के लिए आ धमका। गुण्डा जैसी आकृति थी उसकी। उम्र तीस के आस-पास। इतने दिनों तक पिता का अन्न-जल ध्वंस करता रहा था। ढंग का कोई काम-धंधा नहीं ढूंढ़ पाया। अब अपनी दीदी के पास आकर जीजाजी के कपड़े के व्यवसाय में हाथ बंटाएगा। 

     भाई के आते ही काकी ने स‌ंतो को बुलाकर कहा, स‌ुनो स‌ंतो। वह मेरा भाई जगन्नाथ है। उसे जगु मामा कहकर पुकारना। अब वह हमलोगों के स‌ाथ ही रहेगा। वह जब भी जो कहेगा, तुम वही करना। ध्यान रहे, कोई भूल न हो।

    इसके बाद तो जगु मामा की फरमाइश को पूरा करते-करते स‌ंतो के तो मानो प्राण ही उखड़ जाते। थोड़ी-बहुत भी गलती हो जाती तो इतना बकते थे कि बेचारा स‌ंतो की आंखों में पानी ही आ जाता था। कुछ दिन में ही स‌ंतो को ऎसा लगने लगा कि स‌ब कुछ छोड़-छाड़ कर वह अपने मामा के यहां भाग जाये। पर मामा का घर बहुत दूर था। वह एकदम स‌े पिछड़ा हुआ देहात था। यदि वह वहां एक बार चला गया तो और माध्यमिक परीक्षा देना स‌ंभव न हो स‌केगा। गाछ दादू ने कहा था, स‌ैकड़ों कष्ट होने पर भी पढ़ाई-लिखाई मत छोड़ना। अतः वह स‌ब कष्ट स‌ह कर भी चुपचाप इसी घर में पड़ा रहा।

       भले ही जगन्नाथ का आगमन जीजाजी के व्यवसाय में स‌हयोग करने के लिए हुआ था पर वह दिन का अधिकत्तर स‌मय स‌ोने और बैठने में ही बिता देते थे। कभी-कभार ही जीजाजी की दुकान में जाकर बैठते थे। एक दिन स‌ंध्या के वक्त दुकान स‌े लौटकर उन्होंने कहा, तुमलोगों के कपड़े के व्यवसाय को और विस्तार देने के लिए एक गोदाम की आवश्यकता है। जीजाजी बोल रहे थे कि स‌ामंतो का एक कमरा भाड़ा लेंगे। किंतु इससे तो अधिक रुपए खर्च हो जाएंगे। मैं बोल रहा था, स‌ंतो जिस घर में रहता है क्यों न उसी घर को गोदाम बना दिया जाए।

      स‌ंतो की काकी ने जवाब में कहा, क्या स‌ोचते हो कि तुम्हारे जीजाजी ने यह प्रयास नहीं किया है? किंतु स‌ंतो उपना पैतृक घर छोड़ने को तैयार नहीं है। यह उसने बता दिया है। 
    
    जाएगा कैसे नहीं। कह देने स‌े हो गया? यदि मैं उसे भगाने की व्यवस्था करुं तो?

 क्या तुम उसे मार-धाड़ करके, भय दिखा कर भगाने का उपक्रम स‌ोच रहे हो? वह स‌ब करने मत जाना जगु। मां-बाप विहीन लड़के के प्रति ग्रामवासियों की स‌हानुभूति उसके स‌ाथ  है। मार-धाड़ कर भगाने स‌े ग्रामवासी बिगड़ कर लाल हो जाएंगे। तब हमलोगों को ही यहां वास करना मुश्किल हो जाएगा।

     अरे, नहीं-नहीं। भय क्यों दिखाऊंगा? ऎसी व्यवस्था करुंगा कि स‌ांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। तब देखना, ग्राम के लोग ही उसे घर स‌े बाहर भगा देंगे।

   क्या व्यवस्था करोगे जगु? मुझे बताओ तो स‌ही।

    अभी नहीं। जीजाजी को लौटने दो। रात में स‌ब बताऊंगा।

      उस दिन रात को स‌ंतो रोज की तरह खा-पीकर पढ़ने बैठ गया। पलासी के युद्ध में स‌िराजुदौला को किस प्रकार स‌े षडयंत्र द्वारा हराया गया था। इसे वह बड़े मनोयोग स‌े पढ़ रहा था। किंतु उधर उसके काका के घर में ही उसके खिलाफ ही षंडयंत्र रचा जा रहा है, इसकी भनक स‌ंतो को कतई न लगी।

     स‌ंतो की इच्छा हुई कि काम-धाम निपटा कर खेल के मैदान में जाएगा। फुटबॉल उसका प्रिय खेल था। इस जन्म में तो उसके भाग्य में तनिक भी स‌ुख नहीं है। जीवन पूरी तरह स‌े विषाद स‌े भर गया है। शायद खेल के मैदान में जाकर उसका मन थोड़ा अच्छा हो जाय।

       इसलिए वह भोर स‌े ही जल्दी-जल्दी घर के काम-काज को निपटाने लगा। दो दिन स‌े स‌ंतो यह  देख रहा था कि काका अचानक  ही एकदम बदल गए हैं। वे लोग उसके स‌ाथ पहले जैसा दुर्व्यवहार नहीं कर रहे। स‌बेरे के ठीक नौ बजे काकी ने स‌ंतो स‌े कहा, स‌ंतो मेरे कमरे में टेबल के ऊपर एक कटोरे में दो पान्तुआ (मिठाई) रखा हुआ है। तुम्हारे काका स‌ुबह बाजार स‌े लाए थे। जाकर खा ले। अभी कोई काम नहीं है। इसके बाद मैदान में जाकर तू खेल देख स‌कता है। पर दोपहर का भोजन स‌मय पर आकर कर लेना।

      काकी के इस व्यवहार ने स‌ंतो को कुछ ज्यादा ही चकित कर दिया। रविवार को दोपहर के आगे तो उसका काम खत्म ही नहीं होता था। आज नौ बजे ही खत्म हो गया। खैर रविवार हो या कोई अन्य दिन नाश्ता के लिए उसके लिए रोटी-सब्जी ही रखी रहती थी। आज हठात् पान्तुआ की व्यवस्था क्यों? लेकिन स‌ंतो के पास इतना स‌ोचने का वक्त कहां था? उसका मन तो खेल के मैदान की ओर दौड़ रहा था।

     एक दौड़ में स‌ंतो अपनी काकी के कमरे में पहुंचा। कमरे में कोई नहीं था। वह कटोरे स‌े दोनों पान्तुआ निकाल कर खा गया। इसके बाद अपने कमरे में पहुंचा। वह कमीज पहनते हुए मैदान की ओर भागना चाहा।

      तभी उसे काकी के रोने की आवाज स‌ुनाई पड़ी। शोर-गुल स‌ुन स‌ंतो घबराया। काकी ऎसा क्यों कर रही है ? वह स‌मझ न पाया। अचंभित होकर वह दरवाजे पर ही खड़ा रहा। इतने में उसके काका, जगु मामा कमरे स‌े बाहर निकल आए। उनकी आंखों में ,चेहरे पर उद्वेग था। इधर काकी के चीत्कार  स‌े आस-पड़ोस के लोग इक्कट्ठा होने लगे। 

        कुछ देर के बाद स‌ंतो को माजरा स‌मझ में आ गया। काकी के गले का हार उस घर स‌े चोरी गया था। काकी ड्रेसिंग टेबिल पर रख कर स्नान करने गयी थी। लौट कर आयी तो हार गायब था। उस स‌मय न कि स‌ंतो ही घर में था।

      स‌ंतो के पास आकर जगु मामा ने फट स‌े स‌ंतो का हाथ पकड़ लिया। कहा, बोल हार कहां छुपा कर रखा है?  

      स‌ंतो उस स‌मय इतना घबरा गया था कि वह जगु मामा के प्रश्न का उत्तर ही नहीं दे पाया।
काका ने कहा, तुझे इतने दिनों तक खिलाया-पिलाया, पहनाया इसीलिए कि तू यही प्रतिदान देगा। तुम्हें रुपए की जरुरत ही थी तो मुझ स‌े कह स‌कते थे।

     वहां उपस्थित पड़ोसियों में स‌े कुछ लोगों ने स‌ंतो को घेर लिया। और उससे नाना प्रकार के प्रश्न पूछने लगे। उन्होंने यह मान ही लिया कि हार स‌ंतो ने ही चुराया है।

     पास ही रहने वाले स‌नातन जेठू (काका) ने स‌ंतो स‌े कहा, बाबू हार निकाल दो। आवेश में तुमने गलती कर दी होगी। देखना, काका तुम्हें जरुर क्षमा कर देंगे।

     काजल मौसी ने कहा, स‌ंतो, तुझे तो हमलोग एक अच्छे लड़के के रूप में जानते थे। पर तूने अपनी ही काकी का हार चुरा लिया? छिः।

     लाख कोशिश करके भी स‌ंतो उनलोगों को यह स‌मझा नहीं पाया कि स‌चमुच में उसने हार चोरी नहीं की है। वहां भीड़ और बढ़ने लगी। भीड़ में स‌े किसी ने कहा, दो-चार हाथ लगाने स‌े ही स‌च बता देगा।

    यह स‌ुनते ही उसके काका ने आत्मविश्वास के स‌ाथ तत्काल कहा, हार तो उसने ही ली है। इसमें कोई स‌ंदेह नहीं है। किंतु मार-धाड़ वाले रास्ते पर मैं नहीं जाऊंगा। अब आप लोग ही बताइए कि क्या किया जाए?

   तभी एक व्यक्ति ने कहा, तब तो पुलिस में खबर दे दीजिए। वे लोग आकर स‌ंतो के कमरे की तलाशी लें। उसके बाद जो होगा, वह होगा।

    इसी बात को सुनने के लिए स‌ंतो के काका प्रतीक्षा कर रहे थे। तत्काल वे पुलिस में रिपोर्ट करने के लिए राजी हो गए। जगु मामा के ऊपर उन्होंने स‌ंतो की पहरेदारी का दायित्व स‌ौंप गांव के कुछ प्रतिष्ठित लोगों को साथ लेकर थाना के लिए रवाना हो गए।

    पटासपुर थाना के दरोगा का नाम जलधर जोयरदार था। उनका चेहरा विशाल था। व्यक्तित्व ऎसा कि उन्हें देखते ही भय लगता था। वे जल्दी बोलते नहीं थे। प्रायः  इशारा स‌े ही वे बात करते थे। जब वे इशारा स‌े कुछ बोलते तो कांस्टेबल राधेश्याम पास आ जाता, वही शिकायत कर्ता को दरोगा बाबू के प्रश्न को स‌मझा देता। खूब आवश्यक होने पर दरोगा बाबू कागज पर लिखकर अपनी बात कहते थे। बोलते बिल्कुल न थे।

    लेकिन आप यह न स‌ोचें कि जलधर बाबू गूंगे हैं। वे अच्छी तरह बात कर स‌कते हैं। पर स‌मस्या यह है कि उनका कंठ-स्वर तेज ही नहीं बहुत तेज है। वे धीरे भी बात करते हैं तो पचास फुट तक स‌ुना जा स‌कता है। स्वाभाविक स्वर में बात करते हैं तो लाउड-स्पीकर को हार मानना पड़ता है। और यदि वे जोर स‌े बोल दें तो बात ही क्या ? वह तो विस्फोटक रुप ले लेता है।

    नौकरी के प्रथम चरण में तेज गला के कारण दरोगा बाबू के स‌ाथ अनेक दुर्घटना घट चुकी थीं।  इसी तेज आवाज के लिए उन्हें कई बार स‌ो-काउज नोटिस का स‌ामना भी करना पड़ा था। अंतिम बार की दुर्घटना में तो जोर स‌े धमकाने के कारण एक चोर की मृत्यु ही हो गयी थी। अतः इस घटना के बाद दरोगा बाबू ने बोलना ही छोड़ दिया। तब स‌े आज तक वे इशारा स‌े ही काम करते आ रहे है।

     जो भी हो। स‌ंतो के काका ने जब हार की चोरी की घटना को बताया तब दरोगा बाबू ने इशारा द्वारा यह जानना चाहा कि स‌ंतो क्या करता है ? अगले वर्ष वह माध्यमिक की परीक्षा देगा, यह सुनते ही वे स‌ंतो को गिरफ्तार करने को राजी न हुए। कहा, प्रमाण के बिना वे ऎसा नहीं कर स‌कते। यदि वह रंगे हाथों पकड़ा जाता तब बात दूसरी थी।

     तब स‌ंतो के काका ने यह प्रस्ताव दिया कि स‌र, आज शाम को फुटबॉल टुर्नामेंट के पुरस्कार वितरण में आप मुख्य अतिथि के रुप में आ ही रहे हैं। तब यदि एक बार लोगों को लेकर शाम को स‌ंतो के कमरे की तलाशी ले लेते तो अच्छा होता। मेरी बात स‌च प्रमाणित हो जाती। क्योंकि वह हार लेकर बाहर नहीं जा स‌का है। स‌ंतो इसके पहले भी छोटी-मोटी चोरियां करता आया है। पर मैंने कभी कुछ कहा नहीं। पर अबकी हमने यदि उसे छोड़ दिया तो  हमारी बहुत क्षति हो जाएगी।

      यह बात स‌ुनकर दरोगा बाबू ने राधेश्याम की तरफ देखते हुए पांच उंगली दिखाई। राधेश्याम ने समझाया, आज शाम पांच बजे दरोगा बाबू आपके घर जाएंगे। 

   स‌ंतो के काका खुशी मन स‌े दल-बल स‌हित घर लौट आए। उन्होंने जैसा चाहा था, वैसा ही हो रहा था।
    
    उस दिन दोपहर को स‌ंतो कुछ न खाया। अपने कमरे में मुंह ढंककर खूब रोया। उधर कमरे के बाहर जगु मामा का कड़ा पहरा लगा रहा ताकि स‌ंतो कहीं भाग न स‌के। स‌ंतो अच्छी तरह स‌मझ रहा था कि आज उसके आस-पास कोई स‌हायक नहीं है। स‌भी उसके काका-काकी की बातों पर ही विश्वास कर रहे हैं। हो स‌कता है आज ही पुलिस उसे पकड़ कर जेल में भर देगी और फिर उसका भविष्य खत्म हो जाएगा।
       
       दोपहर ठीक तीन बजे स‌ंतो ने अपनी स‌ंदूक खोली। उसमें रखे एक-एक स‌ामान को निकाला। वे स‌भी मां के स्मृति चिह्न थे। मां को उससे न जाने कितनी आशाएं थीं। कितने स‌पने थे। आज यह स‌ब स‌माप्ति की ओर थे। यही स‌ोच-सोच कर आंखों के आंसू थमने का नाम ही नहीं लेते थे। बड़ी विपत्ति में फंस गया था वह। थोड़ी देर बाद उसकी नजर उस कांच की नीली शीशी पर पड़ी जिसे गाछ दादू ने दिया था। उसने उसे हाथ में उठाया। गाछ दादू याद आते ही वह और रोने लगा। 

     इसी स‌मय छोटी कुशी स‌ंतो के कमरे में आ गयी। उसने भईया को गले लगाकर कहा, भईया तुम रो क्यों रहे हो? तुम्हें किसी ने डांटा है?

     स‌ंतो ने अपनी बहन के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। कुशी को छाती स‌े लगाकर और भी रोने लगा। तब कुशी ने कहा, तुम आज मेरे स‌ंग नहीं खेलोगे?

  स‌ंतो ने उत्तर में कहा, आज मैं नहीं खेलूंगा। तू अकेले ही खेल।

      कुशी अकेली ही वहां खेलने लगी। और स‌ंतो फिर स‌िर छिपाए चुपचाप वहां बैठा रहा। उसकी बहन खेलते-खेलते कब वहां स‌े चली गयी स‌ंतो को पता ही न चला।  कुछ देर बाद स‌ंतो ने देखा कि उसके कमरे के स‌ामने आंगन में कुर्सियां बिछाई जा रही हैं। गांव के दो-चार लोग भी पहुंचने लगे हैं। वे स‌ब बड़े उत्सुक हैं। शर्बत, मिठाई आदि की भी व्यवस्था की जा रही है। स‌ंतो स‌भी स‌्मृति चिह्नों को धीरे-धीरे स‌ंदूक में रखने लगा। बहुत देर तक वह उन्हीं में खोया रहा।  

               तब ठीक शाम के पांच बज चुके थे। जलधर दरोगा अपने दो कांस्टेबल के स‌ंग जीप स‌े स‌ंतो के घर उतरे। स‌ंतो के काका ने दरोगा स‌ाहब का स्वागत बड़े आदर के स‌ाथ किया। उन्हें कुर्सी पर बिठाया गया। स‌ंग-संग राधेश्याम भी दरोगा बाबू के बगल में खड़े हो गए। स‌ंतो की काकी मिठाई व शर्बत के स‌ाथ वहां हाजिर हुई। इस बीच वहां काफी भीड़ इक्कट्ठी हो चुकी थी। मानो पूरा का पूरा गांव ही उमड़ पड़ता था।   

     शर्बत के ग्लास को चूमते हुए दरोगा बाबू ने राधेश्याम को कुछ इशारा किया। तब राधेश्याम ने स‌ंतो को कमरे स‌े बाहर आने को कहा। स‌ंतो स‌िर झुकाए छलछलाती आंखों के स‌ाथ दरोगा बाबू के स‌ामने हाजिर हुआ। दरोगा बाबू ने कुछ इशारा किया। राधेश्याम ने स‌ंतो को स‌मझाकर कहा, ऎ लड़का, हार तुम स‌ीधे-सीधे निकाल कर ला दो। वरना हमलोग तुम्हारे कमरे की तलाशी लेने के लिए बाध्य हो जाएंगे। 

      स‌ंतो ने तब हाथ जोड़कर दरोगा बाबू स‌े कहा, मैंने हार नहीं ली है। किंतु जलधर बाबू ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। कमरे की तलाशी के आदेश दे दिए। आदेश पाते ही दो कांस्टेबल, काका, जगु मामा स‌ब स‌ंतो के कमरे में दाखिल हो गए।

        पंद्रह मिनट की खोज के बाद स‌ंतो के घर के वेंटिलेटर स‌े हार उद्धार हुआ। राधेश्याम ने हार को दरोगा बाबू के हाथ में सौंप दिया। वहां उत्सुक भीड़ में दबे स्वर में प्रतिक्रिया शुरु हो चुकी थी। स‌भी का कहना था कि स‌ंतो भीतर-भीतर इतना खराब लड़का है यह तो किसी ने स‌ोचा तक नहीं था। जिसके घर में खा-पी रहा है, पल-बढ़ रहा है उसी के घर में चोरी। छिः।

        हार देखने के बाद स‌ंतो ने कुछ न कहा। उसे षडयंत्र के तहत जिस प्रकार स‌े फंसाया गया था, उसे वह अच्छी तरह स‌मझ रहा था। जलधर बाबू ने स‌ंतो को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। आदेश के पालन के लिए जैसे ही राधेश्याम आगे बढ़ा ठीक उसी स‌मय कुशी न जाने कहां स‌ो दौड़ती हुई आयी और स‌ंतो के स‌ामने खड़ी हो गयी। उसने अपना दाहिना हाथ बढ़ाकर कहा, भईया यह लो अपनी छीछी (शीशी)।

       असल में गाछ दादू का दिया हुआ वह शीशी कब उसके कमरे स‌े लेकर चली गयी थी स‌ंतो को यह मालूम ही न था। शीशी को पाकर स‌ंतो को मानो एक प्रकार का बल मिला। उसने शीशी को अपनी दाहिनी मुट्ठी में कसकर पकड़ लिया। तभी जगु मामा वहां दौड़ा हुआ आया और स‌ंतो स‌े कहा, देखे, हाथ में क्या छुपा रखा है?

      तब स‌ंतो ने विरोध करते हुए चिल्लाया, ना। नहीं दिखाऊंगा। यह मेरी चीज है।

    मेरी चीज? बिलकुल झूठ। यह भी निश्चय ही चोरी की चीज है। दिखाओ। और यह कहते हुए जगु मामा ने उसके हाथ स‌े जबरदस्ती छीनने की कोशिश की। स‌ंतो ने भी मुट्ठी कसकर बांध ली थी। फलतः छीना-झपटी शुरु हो गयी। परिणाम यह हुआ कि शीशी छिटक कर जमीन पर गिर गयी। शीशी के फूटते ही उसमें स‌े एक अद्भुत गंध निकलने लगी।

       गंध पहले स‌ंतो की नाक में घुसी। तुरंत उसने यह महसूस किया कि उसका अपने ऊपर अब नियंत्रण नहीं रह गया है। वह किसी यंत्र की भांति दरोगा बाबू के पास पहुंचा और दृढ़ता के स‌ाथ बोला, मैं कभी झूठ नहीं बोलता। काकी का हार मैंने नहीं ली है। मुझ पर झूठा इलजाम लगाया जा रहा है।      

        अब तक गंध जगुमामा की नाक में पहुंच चुका था।  अब तो एक ऎसी घटना घट गयी जो एकदम स‌े अविश्वसनीय थी। जगु मामा ने दरोगा बाबू के स‌ामने जाकर कहा, स‌ंतो ठीक ही बोल रहा है। उसने स‌चमुच में हार नहीं चुराया है। स‌ुबह जब वह बाजार गया था तब मैंने ही हार को उसके घर के वेंटिलेटर में छुपा दिया था।

    स‌ंतो की काकी पास ही खड़ी थी। वह भी दौड़ती हुई दरोगा बाबू के पास आयी। कहने लगी, भाई ठीक ही बोल रहा है। मैंने ही उसे हार को स‌ंतो के घर में छुपा देने को कहा था।           

       अब स‌ंतो के काका ने कहा, असल में क्या है, जानते हैं दरोगा बाबू। गोदाम बनाने की खातिर मेरे लिए स‌ंतो का कमरा चाहिए था। उसे ऎसे तो घर स‌े भगाया जा नहीं स‌कता था। लोग क्या कहते ? इसलिए उसके नाम पर झूठा आरोप लगाने आपके पास हमलोग गए थे। यह योजना जगन्नाथ की ही थी। इसमें स‌ंतो का कोई दोष नहीं है।  वह चोरी करने वाला लड़का ही नहीं है।

      जब गंध राधेश्याम की नाक में पहुंची तो वह स‌ीधे दरोगा बाबू के पास जाकर कहने लगा, इस लड़के के कमरे का चप्पा-चप्पा छान लेने पर भी जब हार नहीं मिला तब जगन्नाथ नाम के व्यक्ति ने मेरे हाथ में स‌ौ रुपए पकड़ा दिए और वेंटिलेटर में खोजने को कहा। यह देखिए उसका दिया हुआ स‌ौ रुपए का नोट।  

          टूटी हुई शीशी की गंध स‌े जब दरोगा बाबू प्रभावित हुए तब उन्होंने भी इशारा में एक स‌त्य का उद्घाटन कर दिया जिसे राधेश्याम को छोड़कर कोई नहीं स‌मझ पाया।       

         अब तक उस विशेष गंध स‌े पूरा गांव प्रभावित हो चुका था। अतः एकत्रित भीड़ में शोर-गुल मचा हुआ था। स‌भी ने जो अब तक स‌त्य को छुपा रखा था, उगलना शुरु कर दिया। गंगाधर दरोगा बाबू के पास जाकर बोले, परसो ख्यात बुआ की बकरी को मैंने ही चुराया था। हाट में मैंने उसे मात्र ती स‌ौ रुपए में बेच दिया। 
  
      पानू स‌ामंतो ने कहा,  दरोगा बाबू, श्रीधर ने मुझसे स‌िर्फ पांच स‌ौ रुपए उधार लिया था। पर वह लिखना-पढ़ना तो जानता नहीं। इसलिए स्टैम्प पेपर पर मैंने पांच हजार लिखकर उससे अंगूठा का छाप ले लिया था।

        गजेन स‌रदार ने कहा, स‌र, बलाई मेरे खेत का धान नहीं चुराया था।  एक पुराना झगड़ा का बदला लेने की खातिर मैंने उस पर झूठ-मूठ का दोषारोपण लगाया।

      केवल दरोगा बाबू के पास ही नहीं, वहां उपस्थित अनेक लोगों ने अपने-अपने परिचितों के स‌ामने जाकर स‌त्य का उदघाटन करना शुरु कर दिया था। छोटा भोला अपनी दादी स‌े बोला, जानती हो दादी, कल दोपहर को मैंने ही तुम्हारे घर स‌े आचार चोरी करके खाया था। इसमें स‌ुधा का कोई दोष नहीं है। 

        काजल बुआ ने अपने पास वाले मकान की महिला स‌े कहा, तुम जो कल स‌े जांता की खोज कर रही हो, वह मेरे पास है। आज ही मैं उसे दे दूंगी।

      स‌ातवीं पास बिल्टू ने अपने स्कूल के बांग्ला मास्टर जी स‌े कहा, आपने स‌र कल मुझे ठीक ही पकड़ा था। रवींद्रनाथ पर वह रचना मैंने खुद नहीं लिखी थी। वह मेरी मामन दीदी ने लिख दिया था। 

    इसके अलावा गंध और भी कुछ लोगों की नाक में जब घुसा तो वे अपने-अपने घर की ओर भागने लगे। अब वे स‌ब के स‌ब उस स‌त्य को जल्दी स‌े बता देना चाहते थे जिसे अब तक छुपा रखा था।

   जलधर जोयरदार यह स‌ब हतप्रभ होकर देख रहे थे। और उधर स‌ंतो को स‌िर्फ अपने गाछ दादू की बात ही याद आ रही थी। तब क्या गाछ दादू ने जिस आश्चर्यजनक चीज के बारे में बताया था, वह इसी शीशी में थी। जिसकी गंध नाक में जाते ही व्यक्ति अपने भीतर के स‌त्य को दबाकर बिल्कुल नहीं रख स‌कता। यथाशीघ्र स‌त्य को उगलना ही होता है ठीक वैसे ही जैसे नारको एनॉलिशिश में होता है।

      जलधर बाबू को अब तक यह अच्छी तरह स‌े स‌मझ में आ गया था कि स‌ंतो निर्दोष है। घर के लोग ही उसे फंसाने की चेष्टा कर रहे हैं। वे बहुत देर स‌े इशारा स‌े लोगों को चुप रहने का निर्देष दे रहे थे। किंतु उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। स‌ब अपने-अपने दबे हुए स‌त्य को बताने में व्यस्त थे।

      कुछ देर के बाद दरोगा बाबू का धैर्य जवाब दे गया। वे चुप न रह स‌के। जन-गण को चुप कराने के लिए खड़े होकर उन्होंने हुंकार भरी-चो......प.............

   बस फिर क्या था। उस एक शब्द ने पूरे पटासपुर में भूचाल ला दिया। तब शाम होने को आयी थी। हर दिन की तरह उस दिन भी वट-गाछ पर हजारो कौवों ने डेरा जमाया हुआ था। दरोगा बाबू की उस भयंकर आवाज स‌े डर कर स‌ब पंछी कांव-कांव करते हुए उड़ गए। दूर राम निधि बाबू के घर की खिड़की के कांच झनझनाते हुए टूट कर बिखर गए। गांव की महिलाओं को लगा कि कहीं ब्रज-पात हुआ है, अतः वे विपत्ति को टालने के लिए शंख बजाने लगीं। ख्यात बुआ अपने घर में पानी पी रही थी। इस आवाज के प्रभाव स‌े उनकी नाक में पानी चला गया। फिर क्या था?  वे खांसते-खांसते बेदम हो गयीं। निवारण चक्रवर्ती रामावली चादर शरीरपर डाले पूजा स‌े लौट रहे थे। वे स‌ाइकिल स‌मेत पोखर में गिर पड़े। वे छाती पकड़ कर वहीं बैठ गए। भजोहरि का लड़का किसी कीमत पर दूध पीना न चाहता था। दरोगा बाबू की उस भयावह आवाज को स‌ुनते ही घट-घट कर दूध पीने लगा। और स‌ंतो के घर के स‌ामने जो भीड़ जमा थी, इस आवाज स‌े एकदम स्तब्ध हो गयी। कौवों के कांव-कांव के अलावा कुछ भी स‌ुनाई नहीं पड़ रहा था।

   दरोगा बाबू ने अब इशारा स‌े स‌ंतो के काका, काकी और जगु मामा तीनों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। तीनों ने गिड़गिड़ाते हए दरोगा बाबू के पैर पकड़ लिए। किंतु जलधर जोयारदार अपने स‌िद्धांत पर अटल थे। वे तीनों को जेल में डालकर ही दम लेंगे।

    अब स‌ंतो ने अपना मुंह खोला। उसने दरोगा बाबू स‌े कहा, उन तीनों के विरुद्ध उसकी तरफ स‌े कोई शिकायत नहीं है। अतः दरोगा बाबू उनलोगों को छोड़ दें। स‌ंतो की इस महानता को देखकर दरोगा बाबू को आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने उन तीनों को स‌ंतो स‌े क्षमा मांगने को कहा। किंतु स‌ंतो वहां रुका नहीं। वह कुशी को गोद में लेकर स‌ीधे अपने कमरे में चला गया। 

  दरोगा बाबू ने स‌भी के स‌ामने स‌ंतो के काका, काकी स‌े यह प्रतिज्ञा करवा ली कि अब कभी भी भविष्य में स‌ंतो को स‌ताएंगे नहीं, अधिक काम लेने की कोशिश भी नहीं करेंगे। स‌ंतो के खाने-पहनने का दायित्व वे निष्ठा पूर्वक निभाएंगे। स‌ंतो जब तक चाहेगा उसकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च वे निर्बाद्ध रुप स‌े वहन करेंगे। यदि इसमें थोड़ी स‌ी भी लापरवाही हुई तो वे स‌बको जेल में डाल देंगे।

   इस घटना को बीते अब दस वर्ष हो गए हैं। स‌ंतो अब किसी दवाई की कम्पनी में एक जूनियर वैज्ञानिक हो गया है। उसका वेतन बहुत है। उसकी चचेरी बहन कुशी भी अब छोटी नहीं रह गयी है। वह इस वर्ष माध्यमिक की परीक्षा देगी। आज स‌ंतो के घर की शक्ल ही बदल गयी है। वह दो तल का हो गया है। स‌ुख-सुविधा के हर स‌ाधन आज उसके पास मौजूद है। वह पूरी तरह स‌े एक आधुनिक जीवन व्यतीत कर रहा है।

   
          स‌ब कुछ बदल जाने के बाद भी नहीं बदला है तो वह यह कि उसकी वह स‌ंदूक और स‌ंदूक खोलकर स्मृति चिह्नों को प्रतिदिन देखने की आदत। मां के स्मृति चिह्न के स‌ाथ-साथ गाछ दादू की वह फूटी हुई शीशी भी रखी हुई है। स‌ंतो को अब भी यह विश्वास है कि एक दिन उसके गाछ दादू जरुर लौट आएंगे और आते ही उससे पूछेंगे, स‌ंतो बाबू... क्या खबर है ? 

                                                                                             ***       


Thursday 6 December 2012

मेरी नई पुस्तक- यही है शांतिनिकेतन


पुस्तक प्राप्ति के लिए लिखें- yahihaisantiniketan@gmail.com



Saturday 12 May 2012

बाल भारती (मई अंक 2012) में प्रकाशित 





Wednesday 29 February 2012

बाघ मामा और स‌ियार भगिना (लोक कथा).......उपेंद्र किशोर राय चौधुरी


 अनुवाद- जयप्रकाश स‌िंह बंधु

बाघ को देखते ही स‌ियार के मन में विचार आता है, ठहरो बाघ मामा! अभी मजा चखाते हैं।

       नरहरिदास के भय स‌े स‌ियार ने अपनी पुरानी मांद छोड़ दी थी। (वही नरहरिदास जिसने स‌ियार की मांद में अपना डेरा जमा लिया था। जिसकी लम्बी-लम्बी दाढ़ी थी, जिसे वह घड़ी-घड़ी हिलाता रहता था। वह स‌िंहों का मामा था। और जिसका एक-एक ग्रास (कौर) पचास-पचास बाघ के बराबर था। उसी नरहरिदास के भय स‌े बाघ जिसने स‌ियार को अपनी पूंछ में बांध रखा था, ऎसा भागा था कि बेचारा स‌ियार तो घसीटाते-घसीटाते लहूलुहान हो गया था।)...इसी भय स‌े अब वह उधर नहीं जाता था। उसने एक नयी मांद तलाश ली थी। इसी मांद के पास एक कुंआ था।

        एक दिन स‌ियार को घूमते-घामते नदी के किनारे एक चटाई मिली। वह उसे घसीट कर अपनी मांद के पास लाया और उस कुंए को ढंक दिया। फिर बाघ मामा के पास जाकर बोला, मामा!  मेरा नया घर देखने नहीं गए? ....यह स‌ुनकर बाघ तत्काल स‌ियार का नया घर देखने चल पड़ा। स‌ियार उसे अपनी मांद के पास लाया और पास ही बिछी हुई चटाई की ओर इशारा कर कहा, मामा! यहां बैठिए। जल-पान कीजिएगा? 

        जल-पान की बात स‌ुनकर बाघ बेहद खुश हुआ। मारे खुशी के एक ही छलांग में जैसे ही वह चटाई पर बैठने गया, धड़ाम स‌े कुंए के अंदर चला गया। तब स‌ियार ने चुटकी ली, मामा! जल-पान पेट-भर कर कीजिए।.... कुछ भी नहीं छोड़िएगा।

      संयोग स‌े उस कुंए के भीतर पानी अधिक नहीं था। इसलिए बाघ डूब कर नहीं मरा। पहले बाघ तो बड़ा भयभीत हुआ, पर अंत में कोशिश कर बाघ बाहर निकल गया। बाहर निकलते ही चिल्लाया, कहां गया रे सियार का बच्चा? .....रुक तुझे बताता हूं।....किंतु स‌ियार वहां कहां था? वह तो कब का भाग चुका था। खोजने पर भी स‌ियार तब न मिला था।

        इस घटना के बाद स‌ियार ने बाघ मामा के यहां जाना ही छोड़ दिया था। नतीजा यह हुआ कि बेचारा स‌ियार भोजन के अभाव में धीरे-धीरे अधमरा हो गया। तब स‌ियार ने स‌ोचा, इस तरह तो मैं मर ही जाऊंगा। इससे तो अच्छा है कि बाघ मामा के पास ही चला जाय। और किसी भी प्रकार स‌े यदि मामा को खुश कर लिया गया तो काम बन स‌कता है। 

       यही स‌ोचकर स‌ियार बाघ मामा स‌े मिलने उनके घर चला। पर खतरा अभी टला न था। अतः  दूर स‌े ही उसने मामा को नमस्कार का मुद्रा में... मामा! मामा! की पुकार लगानी शुरु कर दी। बाघ ने जब स‌ियार का स्वर स‌ुना तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। अरे! यह तो वही स‌ियार है जिसने मुझे कुएं में गिराया था। पर स‌ियार तो नमस्कार की मुद्रा में कुछ कहना चाहता था।

         अभी बाघ कुछ करता इसके पहले ही वह दौड़ा मामा के पास आया और अपने दोनों हाथ जोड़ लिए। मामा की चरण-घूलि ली फिर कहने लगा, मामा!  मुझे खोजने में आपको बड़ा कष्ट हो रहा था। यह देख मुझे रोना आ गया। आप मुझे बड़े प्रिय हैं। इसलिए मैं आपके पास चला आया। अब आप मुझे अपने ही घर में मार डालिए।

       स‌ियार के इस व्यवहार स‌े बाघ तो एकदम विचलित हो गया। उसने स‌ियार को मारने का ख्याल ही छोड़ दिया। पर धमकाते हुए स‌ियार स‌े पूछा, पाजी कहीं का! उस दिन मुझे कुएं में क्यों गिरा दिया था?

       सियार ने जीभ को दांत स‌े काटा, दोनों हाथ स‌े अपने कान पकड़े फिर कहा, राम ! राम ! मैं आपको कहीं कुएं में गिरा स‌कता हूं?... मामा, वह तो वहां की मिट्टी ही इतनी नरम थी कि गड्ढा बन गया। आपने इतने जोर स‌े छलांग क्यों लगायी थी? आपके जैसा वीर कोई दूसरा भी है क्या?

      अपनी प्रशंसा स‌ुनकर मूर्ख बाघ बड़ा खुश हुआ। कहा, हां भगिना। उस दिन मैं स‌मझ नहीं स‌का था। इस तरह दोनों में फिर स‌े दोस्ती हो गयी।

       इसके बाद एक दिन नदी के तट पर स‌ियार ने बीस फुट का एक मगरमच्छ देखा जो धूप खा रहा था। फिर क्या था? स‌ियार जल्दी स‌े बाघ के यहां पहुंचा। बोला, मामा-मामा! मैंने एक नाव खरीदी है। देखोगे? ..आओ।

       मूर्ख बाघ स‌ियार के स‌ाथ उस नदी के तट पर पहुंच गया जहां मगरमच्छ चुपचाप पड़ा धूप का आनंद ले रहा था। बाघ ने उसे स‌चमुच में नाव मान लिया। एक ही छलांग में कूदकर जैसे ही वह उसकी पीठ पर बैठा वैसे ही उस विशालकाय मगरमच्छ ने उसे अपने जबड़े में जकड़ लिया और नदी की गहराई में उतर गया।

      बाघ मामा की मूर्खता पर स‌ियार नाचते-नाचते अपने घर चला गया।

                                        

बाघ का पालकी-प्रेम (लोक कथा) ........उपेंद्र किशोर राय चौधुरी


अनुवाद- जयप्रकाश स‌िंह बंधु      

लोक कथा की परंपरा में बाघ न कि मामा है और स‌ियार न कि भगिना। दोनों की दोस्ती बहुत पुरानी है।

       एक दिन स‌ियार ने अपने मामा को अपने यहां निमंत्रित किया। पर उस दिन स‌ियार ने भोजन की कोई व्यवस्था नहीं की। बाघ जब स‌ियार के यहां पहुंचा तब स‌ियार ने कहा, मामा थोड़ा बैठिए। मैंने और भी दो-चार लोगों को निमंत्रण दिया है, उन्हें बुला लाता हूं। ...यह कहकर स‌ियार जो गया रात भर नहीं लौटा। इधर स‌ारी रात बाघ मामा भोजन के इंतजार में बैठे रहे। थक-हार कर स‌ुबह बाघ स‌ियार को भला-बुरा कहता हुआ अपने घर चला गया।
       
    कुछ दिनों के बाद बाघ ने भी स‌ियार को अपने यहां निमंत्रित किया। स‌ियार जब भोज खाने बाघ के यहां पहुंचा तब बाघ ने उसके स‌ामने खूब मोटी-मोटी हड्डियां परोस दीं। स‌ियार के लिए इन हड्डियों को चबाना बड़ा मश्किल था। हड्डी क्या थी स‌ाक्षात लोहा था। चबाने की कोशिश में स‌ियार के दो-चार दांत टूट गए। जबकि बाघ को मोटी-मोटी हड्डियां बहुत पसंद थी। वह बड़े चाव स‌े चबाने लगा और स‌ारी हड्डियां खा गया। फिर स‌ियार स‌े पूछा, क्यों भगिना! पेट भरा तो?
     स‌ियार ने हंसते हुए कहा, हां मामा। मेरे घर में जिस प्रकार तुम्हारा पेट भरा था, उसी प्रकार आज मेरा भी भर गया। किंतु बाघ के प्रति तो बहुत क्रोध आया। करता क्या? सोचा इस बाघ मामा को सबक स‌िखाना ही होगा। जब तक इसे स‌बक नहीं सिखा लेता तब तक अपने देश भी नहीं जाऊंगा। और यह तय कर वह एक दूसरे देश चला गया।
       इस नए देश में खूब गन्ने के खेत थे। स‌ियार इन्हीं गन्नों के खेतों में रहने लगा। जी भर कर गन्ना चूसता और जो नहीं चूस पाता तोड़-फोड़ कर रख देता। किसानों ने जब यह देखा तो कहा, खूब बढ़िया तो। कौन दुष्ट स‌ियार है जो हमारी फसलों को  इस प्रकार स‌े नष्ट कर रहा है? उसे तो मजा चखाना ही पड़ेगा। और फिर किसानों ने स‌ियार को फंसाने के लिए एक विशेष खोयाड़ (पिंजड़ा या खोभार)  तैयार किया।  
      यह खोयाड़(खोभार) लकड़ी स‌े बनाया गया था जो दिखने में पालकी जैसा ही था।  इसकी खासियत यह होती है कि इसके भीतर छोटा-मोटा शिकार रख दिया जाता है, और जैसे ही कोई जानवर इसके भीतर घुसता है वैसे ही दरवाजा बंद हो जाता है। गांव वाले दुष्ट जानवरों को इसी रूप में  स‌दियों स‌े काबू में करते आए हैं। स‌ियार ने जब इस खोयाड़ को तैयार करते देखा तो मन ही मन कहा, यह मेरे लिए है न कि मामा के लिए? ऎसे स‌ुंदर घर में तो मामा को ही रहना चाहिए।
      तत्काल वह मामा के पास पहुंचा। बोला, मामा, एक बड़ा निमंत्रण आया है। राजा के लड़के की शादी है। वहां हम गाना गाएंगे और आप बजाइगा। और भोज जो मिलेगा उसका तो कहना ही क्या? उन्होंने तो हमारे लिए पालकी भी भेजी है। ...मामा जाइएगा?
    बाघ लालच में आ गया। कहा, जाऊंगा क्यों नहीं? कहीं ऎसा निमंत्रण भी छोड़ा जाता है? फिर उन्होंने तो पालकी भी भेजी है।
   स‌ियार ने बाघ मामा को और विश्वास में लिया। कहा, और क्या? कोई ऎसा-वैसा पालकी है? आप तो कभी ऎसे पालकी में चढ़े भी न होंगे।
    इस प्रकार बाघ और स‌ियार बतियाते हुए उस गन्ने के खेत के किनारे पहुंचे जहां खोयाड़ तैयार था। बाघ ने जब पालकी को देखा तो थोड़ा स‌ंदेह हुआ। कहा, स‌िर्फ पालकी भेजी है? ढोने वाले कहार कहां हैं?
   इस पर स‌ियार ने कहा, हमलोगों के पालकी में बैठते ही कहार भी आ जाएंगे।
   बाघ ने फिर पूछा, अरे! पालकी में डंडा नहीं है जो?
  स‌ियार ने बाघ की शंका दूर करते हुए कहा, मामा!  डंडा कहार स‌ाथ लाएंगे।
बाघ आश्वस्त होकर जैसे ही पालकी में चढ़ा, पालकी का दरवाजा धड़ाम स‌े बंद हो गया। पर उसमें जंतु देखकर बाघ बड़ा खुश हुआ।
   स‌ियार ने बाहर स‌े आवाज लगायी, मामा!  दरवाजा क्यों बंद कर दिया? हम घुसेंगे कैसे?
इस पर बाघ ने जवाब दिया, तुम्हें अंदर आने की जरुरत नहीं। अब निमंत्रण हम ही खाएंगे।
     स‌ियार ने कहा, ठीक है मामा! पेट भर कर खूब बढ़िया स‌े भोज खाइए। ... कम मत खाइएगा।... कहकर स‌ियार वहां स‌े हंसते-हंसते अपने देश लौट गया।
   इधर किसानों ने जब देखा कि खोयाड़ में बाघ फंसा है तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। खबर पूरे गांव में आग की तरह फैली। भाला, बरछी, हंसुआ, फरसा, लाठी, डंडा जिसे जो मिला वही हाथ में लेकर बाघ महाशय को देखने खोयाड़ के पास पहुंचा। फिर क्या था? अति उत्साह में गांव वालों ने बाघ मामा को पीट-पीट कर मार डाला। 
                                                      ***

Tuesday 28 February 2012

अबकी आम नहीं बौराए

मधुमती, राजस्थान स‌ाहित्य अकादमी, 1996 में प्रकाशित