Monday 3 August 2015

बाबूजी पर आरोप था

कविता
बाबूजी पर आरोप था
-जयप्रकाश सिंह बंधु

भाई अक्सर पूछा करता था बाबूजी से
क्या किया आपने हमारे लिए?

वैसे भी बाबूजी बोलते बहुत ही कम थे
ऐसे प्रश्नों पर तो बिलकुल ही उत्तर नहीं देते थे
शायद हंस देते हों भीतर ही भीतर

बाबूजी के नाम पर कोई पूंजी नहीं थी
हमलोगों के लिए छोड़ी थी उन्होंने
एक घड़ी, छाता, धोती-कुर्ता
सीधा सपाट-सा जीवन
संतोष धन और ईमानदारी
कभी उन्हें किसी को ठगते नहीं देखा हमने
स्वयं के ठगे जाने पर हो जाते थे आग बबूला
एक बार सड़क पर मिल गयी थी उन्हें सोने की हार
खुशी नहीं हुई थी उन्हें, करते जाते थे अफसोस
देख ना... केकर गिर गोइल, कतना परेशान होइ उ
तभी बेचैन एक स्त्री सड़क पर थी खोजती अपनी हार
दौड़कर पूछा था बाबूजी ने, और दे दिया था उसे
बेहद प्रसन्न थे उस दिन बाबूजी

पर महिला ने बाबूजी को बेवकूफ कह दिया था
यह खबर उड़ती-उड़ती जब पहुंची थी मां के पास
तो जी भर कर कोसा था बाबूजी को
तब बाबूजी ने मुस्कुरा कर अपने को
बड़ी मुश्किल से संभाला था

हमलोग जिस घर में रहते थे बाबूजी ने ही बनवायी थी
अवकाश ग्रहण करने के बाद
सभी भाई-बहनों को मिले थे
पढ़ने-लिखने के अवसर समान भाव से ही
फिर भी भाई का आरोप था.....
जिसे सुनने के बाद
बाबूजी की चुप्पी और गहरी हो जाती थी

बाबूजी शायद कहना चाहते थे
और कहा भी था अप्रत्यक्ष रूप से कई बार
पशु-पक्षी भी कर लेते हैं भोजन का जुगाड़
सही-सलामत हैं हाथ-पांव भगवान की दया से
परिश्रम से क्या नहीं हो सकता?
कोई न कोई जुगाड़ बैठ ही जाएगा
निकालने से निकल ही जाएगी कोई राह
हिम्मत नहीं हारनी चाहिए पुरूष को कभी
यही सब कहते-कहते एक दिन बाबूजी
निकल गए थे चुपके से महाप्रयाण पर

उस दिन फूट-फूटकर रोए थे हम सब
बस नहीं रोया था तो वह भाई ही था
वह तब भी अड़ा हुआ था अपनी बात पर भीतर ही भीतर
व्यर्थ हो गए थे हमारे लिए मकान, गांव, खेत-खलिहान
मानो सब कुछ रिक्त हो गया था
अपने आप में वे कोई मणि
या कोई बेस कीमती हीरा ही थे
जो कहीं खो गया था

फिर भी बाबूजी पर आरोप था......
जाते-जाते ले गए थे ढोकर जिसे
अपने माथे पर।


         ***

रोटी



रोटी
-जयप्रकाश सिंह बंधु


बचपन में एक कहानी पढी थी
रोटी के लिए कैसे झगड़ रही थीं दो बिल्लियां
तभी आया था एक बंदर
रच दिया था रोटी बांटने का षडयंत्र
और बांटते-बांटते
खा गया था पूरी रोटी
सीख गया था बचपन में ही मैं
मिल-बांटकर खानी चाहिए रोटी

इसी तरह एक स्टेशन पर मैंने देखा था
जो गांव के किसी उत्सव के बाद विदा हुए थे
पकड़नी थी उन्हें गाड़ी रोटी के लिए
और जब आयी थी गाड़ी उनकी
आंखों में आंसू थे, होंठो पर आशीर्वाद
सवार हो गया था परिवार का एक हिस्सा
उस गाड़ी में जो दिल्ली की ओर जा रही थी
जबकि बाकी लोग
कलकत्ते की ओर रवाना हुए थे
और जो रह गए थे गांवों में
पसर गया था उनके सामने
सन्नाटा......
कई दिनों तक

रोटी के लिए आदमी क्या नहीं करता?
सीख जाता है रस्सी पर चलना
छोड़ देते हैं लोग अपना वतन
बेच देती है कोई लड़की अपनी अस्मत
खून हो जाता है किसी भाई का

चोरी, छिनताई, पाकेटमारी, डकैती में भी
कबख्त यह रोटी ही है
जिसके लिए डाल देते हैं लोग
जान जोखिम में
बन जाते हैं बहुरूपिया
और दिखाते हैं सर्कस
सड़क से संसद तक

और यदि थोड़ी देर के लिए
मान लिया जाए संसद को एक सर्कस-खाना
तो यहां क्या नहीं होता रोटी के लिए?
बनती हैं बड़ी-बड़ी योजनाएं
जिसमें फंसकर रह जाती है गरीब की रोटी
पर आती है बारी जब अपनी रोटी की
तब हें-हें करते, मेज थप-थपाते
चुपके से पास हो जाते हैं प्रस्ताव
बिना हो-हल्ला के, बिना पटका-पटकी किए
हड़प ली जाती है रोटी

पर मित्रों सावधान!
तवे पर उलटी-पलटती यह रोटी
पलटती आयी है व्यवस्थाओं को
उजाड़े हैं इसने क्रूर साम्राज्य
और बसाएं हैं नए-नए गांव भी
फैला दिए हैं शहरों को

सदियों से हाथों या चौकी-बेलन के बीच
घूम रही है रोटी
या घुमा रही है पूरी पृथ्वी को
अपने ही लय में

धीरे-धीरे?


पहला पुस्तक मेला

तीन साल का एक बच्चा
पुस्तकों को छू-छू कर उत्सुकता से पूछता जाता था
जो उसकी दृष्टि से बहुत ऊपर सजी हुई थी
यह क्या है...यह क्या है....और यह...
थोड़ा बच्चा बन कर पुस्तक बिक्रेता ने भी
बार-बार उससे यही कहा था
यह पुस्तक है बेटा...यह भी पुस्तक है..और यह भी
जबकि उसकी मां उसे घसीटते हुए
आगे बढ़ते जाते की धुन में थी, और कहती थी -
यह सब तुम्हारे लिए नहीं है

तभी बिक्रेता ने उसके हाथ में दिया था एक पुस्तक
यह कहते हुए कि लो, यह तुम्हारे लिए है..
बच्चा खुश होकर उलटता गया था पन्ना
और बच्चे के सामने प्रकट हो गए थे यकायक
पहाड़, जंगल, नदी, रेलगाड़ी
उसके जैसे बच्चे, मम्मी-पापा भी
खट्टी-मीठी इमली, घूमता हुआ लट्टू
और न जाने कितने ढेर सारे खिलौने

बच्चा गौर से देख रहा था उड़्ते हुए पतंग को
जिसे थामे था उसके जैसा ही एक बच्चा
लाओ रख दो इसे झोले में अब, कहा था मां ने
पर बच्चा छाती से लगाए था पुस्तक
दोनों हाथों में जकड़े, वह देने के मूड में नहीं था
मानो कोई खजाना मिल गया हो उसे
जो केवल उसका ही था

पहला पुस्तक मेला था यह उसका
जिसने पल में दिखा दिया था
कला की एक नई
जादुई दुनिया।
   
मय

मय बताती घड़ी को भी
चलते रहना होता है समय के साथ
और जब कभी होने लगती है स्लो या फास्ट
तो मय ही उसे समय से
ठीक करता रहता है

समय घड़ी को ही नहीं
अच्छों-अच्छों को ठीक कर देता है मय पर
कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल
अपनी धुन में चलता रहता है
यह मय

जब पड़ता है किसी का समय कमजोर
तो धरे के धरे रह जाते हैं सारे साधन
जिसे हम बुरे वक्त के लिए
ंजो कर रखते हैं
व्यर्थ हो जाती है प्रार्थनाएं
और छीन लेता है मय कुछ
मय बहुत पहले।

चुपके से

कविता
चुपके से
-जयप्रकाश सिंह बंधु

कट जाते हैं चुपके से
शहर के पेड़
भर दिए जाते हैं तालाब

झोपड़ियां, पुराने घर भी
टूट जाते हैं चुपके से
और पर्दे के पीछे
चलता रहता है निर्माण
रची जा रही होती है साजिशें

एक दिन पर्दा के हटते ही
चुपके से बदल जाती है
शहर की तसवीर

मित्रों! तब तक
शहर के बचे-खुचे पक्षी भी
कर चुके होते हैं पलायन
चुपके से।

बिंदिया

दर्पण के किसी कोने में
या दरवाजे की चौखट पर
कहीं-कहीं बाथरूम की दीवार पर ही सही
बना ही लेती हैं ये बिंदिया
अपने लिए जगह

लाल-काली, हरी-नीली
रंग-बिरंगी, प्यारी-प्यारी
किसम-किसम की तारे जैसी
आकर्षक बिंदिया

दादी की बिंदिया
मां की बिंदिया
पत्नी की बिंदिया
पीढ़ी दर पीढ़ी ये
इसी तरह बनाती आयी हैं
अपने लिए जगह
और जगमगाती रही हैं वैसे ही
जैसे जगमगाते हैं
आसमान में नक्षत्र।