Wednesday 10 December 2014

बुद्धिराम....शीर्षेंदु मुखोपाध्याय ( प्रकाशित, वागर्थ अंक 233, दिसम्बर 2014)

बांग्ला कहानी
बुद्धिराम
                                                                                            शीर्षेंदु मुखोपाध्याय
                             (अनुवादक- जयप्रकाश स‌िंह बंधु ) 
 
बुद्धिराम शीशी को घुमा-फिरा कर देख रहा था। लेबल पर छपे स‌भी अक्षर बड़ी आसानी स‌े पढ़े जा स‌कते थे। ‘इसके नियमित स‌ेवन स‌े कृमि, अम्ल-पित्त, अजीर्णता रोगों का निवारण अवश्यंभावी है। यह अतिरिक्त शक्तिवर्धक टॉनिक है। स्नायु, दुर्बलता, धातु दुर्बलता व अनिद्रा रोगों में भी परम् उपकारी है। बड़े-बड़े डाक्टरों व कविराज वैद्यों ने इसकी खूब प्रशंसा की है’। छपे क्षर बुद्धिराम की बड़ी दुर्बलता हैं। छपे क्षर में जो कुछ भी लिखा रहता है, उस पर बुद्धिराम का मन विश्वास करने का करता ही है।
    आदुरी अवश्य ही अन्य धातु की है। बुद्धिराम स‌े उसका किसी भी प्रकार स‌े मेल नहीं है। बुद्धिराम जो स‌ोचता है, उसकी जो इच्छा होती है आदुरी को ठीक इसके उलट होती है। बुद्धिराम यदि नरम-सरम आदमी है तो आदुरी हुई रणचंडी। बुद्धिराम यदि नास्तिक है तो आदुरी घोर आस्तिक है। बुद्धिराम यदि काला हुआ तो आदुरी को गोरा होना ही होगा। विधाता ने (यदि कहीं है तो) दोनों को ऎसे अलग माल-मसाला स‌े गढ़ा है कि अब क्या कहा जाय?
    और इसीलिए इस जन्म में दोनों का मिलन स‌ंभव नहीं हो स‌का या कहें कि होते-होते रह गया। अभी यदि बुद्धिराम की उम्र बत्तीस-तेंत्तीस है तो आदुरी की स‌ताइस-अठाइस चल रही होगी। दोनों में बातचीत नहीं है। आमना-सामना भी नहीं होता और अगर कहीं हो गया तो दोनों की आंखों के मिलने की कोई गुंजाइस नहीं है। आदुरी आजकल बुद्धिराम की तरफ देखती भी नहीं।
   किंतु बुद्धिराम आदमी भला है। यह दूसरे तो जानते ही हैं वह स्वयं भी जानता है। बुद्धिराम ने स्वयं को आपादमस्तक निरख कर देखा है। हां वह आदमी बुरा नहीं है। बीच-बीच में बुद्धि के दोष स‌े एक-दो काम उल्टा-पुल्टा कर बैठने मात्र स‌े ही उसे बुरा आदमी नहीं कहा जा स‌कता।
   बुरा ही यदि वह होता तो क्या स‌ात मील स‌ाइकिल धसीटते हुए चकबेड़ के हाट में मन्नमथ सेनशर्मा का पित्त का आयुर्वेदिक हरबल टॉनिक खरीदने क्यों आता? केवल चार महीना पहले ही बुद्धिराम को प्लूरिस की बीमारी स‌े मुक्ति मिली थी। अभी उसका शरीर पूरी तरह स‌े ठीक भी नहीं हुआ है। कौवे के मुख स‌े न कि स‌ुना गया था कि आदुरी को आजकल अम्बल की शिकायत रहती है। यह स‌ब न जाने कितनी ही लड़कियों को होता है। इससे किसका स‌िर क्यों दुखे? पर बुद्धिराम चूंकि आदमी भला है इसलिए खोज-खबर रखने लगा।
   तेजन स‌े स‌ुना। हरबल खाने स‌े उसकी बुआ की अम्बल की बीमारी अच्छी हो गयी है। मानिक मण्डल के मुख स‌े भी स‌ुना था कि हरबल बड़ा ही जब्बर (प्रभावी) दवा है, तीन शीशी खाते न खाते उसकी बहू चंगा हो उठी। और एक दिन परितोष ने भी बताया था कि हरबल तो अम्बल का एकदम स‌े यमदूत है। पर मिलना बहुत कठिन है। मन्मथ कविराज शिवपुर में रहते हैं। उम्र अस्सी के पार है। इसलिए कई-एक बोतल ही बना पाते हैं। खूब मांग है। चकबेड़ के हाट में इसे एक व्यक्ति बेचने ले आता है।
   यह खबर मिलते ही आज मंगलबार को स्कूल के शेष दो पीरियड किसी के मत्थे मढ़कर स‌ाइकिल स‌े इतनी दूर चला आया है। एक जीर्ण-शीर्ण पेड़ के नीचे एक अधेड़ उम्र का चिड़चिड़ा व्यक्तिव वाला व्यक्ति एक गंदी चादर ओढ़े कई एक धूल-धूसरित शीशी लेकर बैठा है। वह बड़ा गुस्सैल प्रतीत होता था।
   बुद्धिराम ने पूछा, हरबल है?
 व्यक्ति ने चेहरा उठाकर कहा, हां है, स‌त्रह रुपया।
स‌त्रह रुपया स‌ुनकर बुद्धिराम थोड़ा विचलित हो गया था। दो शीशी खरीदने की इच्छा थी। किंतु जेब स‌े झाड़-झूड़ कर अठाइस रुपया स‌े ज्यादा नहीं निकला।
 अच्छा दो शीशी खरीदने स‌े कुछ कन्सेशन नहीं होगा?
  व्यक्ति ने उसे ऎसी घृणा की दृष्टि स‌े देखा मानो कोई मरा हुआ चूहा देख रहा हो। मुंह फेर कर कहा, मिल जा रहा है यही बहुत है। क्योंकि मन्मथ कविराज की उम्र अब पूरी हो गयी है। उनके बाद तो हरबल हवा ही हो जाएगा। माथा पीटकर मर जाने स‌े भी नहीं मिलेगा।
  बुद्धिराम ने एक शीशी खरीद कर कहा, यदि आगामी मंगलबार को आऊं, तो मिल जाएगा न?
  कहना मुश्किल है।
    बात जो भी थी, पर उसे कहने का एक रंग-ढंग तो है ही। व्यक्ति ने ‘कहना मुश्किल है’ इस तरह कहा जिससे हृदय में लगे। मनुष्य को तुच्छ, फालतू बताना ही मानो बहादुरी हो।बेचते तो हो कविराज की औषधि, और वह भी पेड़ के नीचे बैठकर, फिर इतना गुमान क्यों?
   शीशी लेकर बुद्धिराम हाट में थोड़ा घुमा-फिरा। चकबेड़ का हाट बड़ा ही है। लोगों की गिजमिज-गिजमिज भीड़ है। किसी न किसी परिचित स‌े भेंट होगी ही। आस-पास के पांच-सात गांव के लोग ही तो आते हैं। पर बुद्धिराम अभी किसी परिचित व्यक्ति का स‌ामना नहीं करना चाहता। बीच-बीच में उसे अकेले बुड़बक बने रहने में ही मजा आता है।
   जलेबी छनने व डुबोने की मीठी सुगंध आ रही है। भजा की दुकान की जलेबी बड़ी विख्यात है। स‌िर्फ जलेबी बेचकर ही भजा ने स‌ातपुकुर गांव में तीन बिघा धान खेत, पक्का मकान बना लिया है। तीन पंजाबी गाय भी खरीदी है। उसके पास डीजल पम्प-सेट और ट्रैक्टर भी है। पर फटी गंजी और ठेहुन तक धोती पहन कर ऎसा भाव मूर्ति दिखाता है कि नमक भात भी नहीं जुटता।आज भी भजा उसी वेष में है। नारियल की खोल में छेद करके अपने स‌धे हाथों स‌े खौलते तेल में जलेबी गढ़ रहा है। चार लड़के रस भरे गमले से जलेबी निकाल-निकाल कर शाल पत्ता के ठोंगे में देते-देते हिम-सिम खा जा रहे हैं। राज्य के लोग मक्खी की तरह उसकी दुकान के स‌ामने भिन-भिन कर रहे हैं।
   बुद्धिराम ने खड़े होकर थोड़ी देर तक यह स‌ब देखा। बाएं हाथ स‌े पैसा तेजी स‌े आ रहा है। कैश-बक्स बंद करने का स‌मय नहीं है। और उसके भीतर रुपया-पैसा गिज-गिज कर रहा है। आंखें चौंधिया रही हैं। बुद्धिराम रुपया पैसा के विषय में ज्यादा नहीं स‌ोचता पर एक स‌ाथ इतना स‌ारा रुपया देखकर न जाने उसका हृदय कैसा कर रहा है।
  बुद्धिराम ने थोड़ी जगह बेंच पर खोजी। लोग ठसाठस भरे हुए हैं। स‌ब जलेबी में डूबे हुए हैं। ऎसे खा रहे हैं मानो बस यही अंतिम हो। बड़ी-बड़ी नीली मक्खियां बड़े पैमाने पर उड़ रही हैं। भीतरी भाग की तीन बेंच में स‌े एक स‌े दो व्यक्तियों के उठते ही बुद्धिराम ने जगह लूटी। अभी भी आश्विन के अंतिम में उस तरह स‌े ठंडा का भाव नहीं है। दोपहर गर्म हो जाता है। चूल्हे की ताप और लकड़ी के धुएं स‌े फूस की दुकान में तीखी गर्मी है। बैठते ही बुद्धिराम को पसीना आने लगा।
    बगल के व्यक्ति को अभी भी जलेबी मिली नहीं है। वृथा हांक-डाक लगा रहा है। कहता है, हे भजो दा! आधा घंटा हो गया, हां करके बैठा हूं, दोगे तो!
दे रहे हैं भाई! दे रहे हैं। हाथ तो दस नहीं हैं!
लगता है हमलोगों के हाथ में ही फालतू का स‌मय है।
  अभी जो तला जा रहा है, निकलते ही दूंगा।
    व्यक्ति ने झट स‌े बुद्धिराम के हाथ स‌े शीशी ले ली और पढ़ने लगा। आश्चर्य स‌े कहा, हरबल? मन्मथ कविराज की दवा। दूर-दूर, किसी भी काम का नहीं है। तीन शीशी खायी है।
   बुद्धिराम ने उसके हाथ स‌े शीशी वापस ले ली। कहा, ठीक है। काम नहीं होता तो नहीं होता।
  व्यक्ति ने गुस्से स‌े थोड़ी देर बुद्धिराम को देखा। उसी स‌मय जलेबी के आ जाने स‌े वह कुछ कह नहीं पाया। मुख तो केवल एक ही है, दो काम कैसे किए जा स‌कते हैं? ऊपर स‌े भजा की जलेबी मुख को रस स‌े भर देती है। कुछ कहते नहीं बनता।
   लोग बुद्धिराम के स‌ंबंध में कहते हैं कि वह मिलनसार व्यक्ति है। बात भी झूठी नहीं है। बुद्धिराम को बड़ा स‌ोचना अच्छा लगता है। स‌ोचते-सोचते उसका दिमाग न जाने कौन स‌ा मुल्क ले जाता है। कितनी अजीबो-गरीब चीजें दिखाता है, उसका कोई ठीक-ठिकाना नहीं रहता। बुद्धिराम भजा की जलेबी की दुकान में बैठे-बैठे स‌ोचने लगा। यही कि भजा दाहिने हाथ स‌े, बाएं हाथ स‌े ईश्वर की कृपा स‌े इतना जो रुपया कमा रहा है, इसका उद्देश्य क्या है?
   इतनी जमीन-जायदाद, घर-बाड़ी, विषय-संपति यह स‌ब छोड़-छाड़ कर एक दिन फुटुस करके आंख तो उलटना ही होगा। तब भजा का कोई लड़का जलेबी का जाल बनाने नहीं आयेगा।भाग-बंटवारा करके, लाठा-लाठी करके मारा-मारी होगी और स‌ब कुछ छिन्न-भिन्न हो जाएगा। क्या यह स‌ब भजा नहीं जानता है? फिर भी न खा-पीकर धूप-पानी स‌हते हुए फूस की छत के नीचे जलेबी छाने जा रहा है। रुपया का नशा हो गया है व्यक्ति को।
   बहुत देर बैठने के बाद बुद्धिराम की बारी आखिर आ ही गयी। ठोंगा में आठ जलेबी एकदम स‌े गरमा-गरम रस स‌े स‌नी हुई। आह! ठीक इसी तरह का एक ठोंगा यदि आदुरी को भेजा जा स‌कता!
   पहली जलेबी में दांत लगते ही टप-टप करके असाधारण ढंग स‌े दो बूंद रस बुद्धिराम की टेराकॉटन पंजाबी पर चू पड़ा। घी रंग की पंजाबी थी, गले और बांह में कढ़ाई की हुई। बुद्धिराम ने रुमाल स‌े रस पोंछी। मन थोड़ा खराब हो गया। एकदम नयी पंजाबी थी। कूची की हुई धोती के ऊपर इसी पंजाबी को पहन कर उसने कई बार आदुरी के घर के स‌ामने स‌े चक्कर काटी थी। आदुरी अवश्य ही निकली नहीं थी। पर बुद्धिराम की यह धारणा थी कि आदुरी ने जरुर ओट स‌े उसे देखा होगा।
   जलेबी का पैसा देकर बुद्धिराम वहां स‌े उठ पड़ा। स‌ामने ही पान की दुकान थी। वह पान-सिगरेट नहीं खाता। दुकान के पास खड़े होकर वहां के दर्पण में आड़ा-तिरछा होकर अपने को निहारा। नहीं, बुद्धिराम दिखने में बुरा नहीं है। रंग भले ही थोड़ा काला है, किंतु मुख-आंख बहुत ठीक-ठाक है। स्वयं को देखकर वह थोड़ा खुश भी हुआ। रुमाल स‌े चेहरे का पसीना पोंछ लिया।
  एक दुकान में पचास पैसे के करार पर उसने स‌ाइकिल जमा करवायी थी। स‌ाइकिल लेकर वह निकल पड़ा।
  चारों तरफ दूर-दूर तक खुला मैदान व धान के खेत हैं। आकाश कितना विशाल है। बांस-वन के पीछे स‌ूरज थोड़ा छिप गया है। स‌र-सर हवा बह रही है।
   बुद्धिराम धान के खेत में स‌ाइकिल स‌े उतर गया। स‌ामने चौड़ा ताल है। थोड़ी दूर पर रास्ता है।
  धान के खेत में उतरते ही न जाने बुद्धिराम का मन कैसा होने लगा। आदुरी क्या दवा पियेगी? ऎसे ही औरतें दवा पसंद नहीं करती, तिस पर स‌े बुद्धिराम की भेजी दवा? लगता है आदुरी इसे छुएगी भी नहीं। इतना परिश्रम बेकार ही जाएगा। …सो जाता है तो जाए। पर बुद्धिराम को जो करना है वह बुद्धिराम करता ही जाएगा।
  दुर्गापूजा के स‌मय बुद्धिराम ने एक स‌ाड़ी भेजी थी। बहिन रसकली जाकर दे आयी थी। पर उसने हाथ बढ़ाकर नहीं लिया था। मुंह बनाकर पूछा था, किसने भेजा है रे!
   रसकली मूर्ख लड़कियों में स‌े एक ठहरी। डर कर कह दिया था, मां ने भेजी है।
   तेरी मां मुझे स‌ाड़ी क्यों भेजेगी?
वह मैं नहीं जानती। इसे पहनकर अष्टमी के दिन पुष्पांजलि देना।
 स‌ाड़ी अच्छी ही थी। कालू-तांत-घर स‌े खरीदी गयी थी। लाल जमीन पर ढ़ाकाई बूंटी का काम था।फिर भी स‌ाड़ी की तरफ आदुरी ने देखा तक नहीं। केवल दया करते हुए कहा था, वहां कहीं पर रख दो।
  उस स‌ाड़ी को आज तक आदुरी ने नहीं पहना। बुद्धिराम की इस पर नजर है। खोज-खबर भी ली है। स‌ाड़ी नहीं पहनी है। परंतु उसने लौटाया भी नहीं, यही लाभ हुआ था बुद्धिराम को। अचानक एक दिन बुद्धिराम की नजर पड़ी, वही स‌ाड़ी रसकली पहन कर घूम रही है।
  स‌ाड़ी कहां स‌े मिली?
डरे-डरे रसकली ने कहा, आदुरी दीदी ने दी है।
 देने स‌े ही ले ली?
 तो क्या करती?
बुद्धिराम ने और कुछ नहीं कहा। गुस्से को पीकर रह गया था। अपमान स‌े कई दिनों तक मन खराब रहा।
दोषयुक्त मनुष्य के स‌ाथ क्या नहीं होता है?
  तब का बुद्धिराम तो आज का बुद्धिराम नहीं था। आज के एक गंवार गांव के स्कूल मास्टर को देखकर कौन यह विश्वास करेगा कि वह अपने स‌मय का स्कूल का फास्ट बॉय था। पास भी अच्छे अंकों से किया था। दो-दो विषय में उसे लेटर मार्क्स मिले थे। शादी की बात तभी चली थी जब बुद्धिराम डॉक्टर या इंजीनियर बनने का स‌पना देख रहा था।
  बूढ़ी दादी तब इतनी बूढ़ी नहीं हुई थी। एक दिन आदुरी को खूब स‌जा-संवार कर लाकर कहा था, देखो तो पसंद है? होने स‌े छेंक कर रख दें। पढ़-लिखकर कुछ बन जाने पर माला-बदल कर देंगे।
   आदुरी नापसंद होने वाली लड़की नहीं थी। गोरी तो थी ही। आंखें, चेहरा-मोहरा भी ठीक था। किंतु वह गांव की लड़की थी। नित्य आमना-सामना होता ही था। जिसे कहते हैं घर की मुर्गी, इसलिए बुद्धिराम ने होंठ बिचका कर कहा था, धत्! इससे तो गले में रस्सी डालना ही अच्छा होगा।
  क्यों रे! लड़की में क्या खराबी है? देखो तो कितनी गोरी है! मुंह, आंखें कितनी स‌ुंदर हैं!
  स‌ात जन्म शादी न करने स‌े भी होगा, पर वह लड़की मुझे नहीं चलेगी। जाओ तो दादी, नाटक बंद करो।
   एकदम स‌े जैसे गाल पर थप्पड़ मारने वाली बात हो। आदुरी खूब अपमानित हुई थी। उस स‌मय उसकी उम्र बारह वर्ष थी। एक दौड़ में भाग गयी। फिर कभी नहीं आयी। खूब न कि वह हिचकी ले-ले कर रोयी थी। तीन दिनों तक ढंग स‌े खाना भी नहीं खायी थी।
   तब बुद्धिराम को इस ओर माथा-पच्ची करने की फुर्सत नहीं थी। चौदह माील दूर महकमे के कॉलेज में उसे जाना पड़ता था। नए-नए बंधु-बांधव, नए ढंग का जीवन था। वहां पर एक गंवार लड़की को लेकर किसी तरह का विचार करने का उसका मन नहीं था।
    और एक घटना घटी थी। बुद्धिराम के स‌ंग लड़कियां भी पढ़ती थीं। उसमें एक थी हेना। देखने-सुनने में अच्छी तो थी ही उसकी बात-चीत, चाहत-वाहत भी बहुत अच्छी थी। बात करने में वह बड़ी पटु थी।
   बुद्धिराम अच्छा छात्र था। अतः हेना उसकी ओर थोड़ी आकर्षित हुई। एक-डेढ़ वर्ष बुद्धिराम का हेना के स‌ंग घुलना-मिलना हुआ। पर उसे प्यार या चाहत कहा जा स‌कता है इसमें बुद्धिराम के मन में आज भी स‌ंशय है।
   किंतु हेना कुछ करे या न करे, बुद्धिराम की पढ़ाई-लिखाई को बारह बजा दिया था। कॉलेज के प्रथम स‌त्र को पास करने में ही बुद्धिराम को पसीना आ गया। पास किया पर लंगड़े घोड़े की तरह। पर हेना अच्छी तरह स‌े पास-टास कर कलकत्ता डॉक्टरी पढ़ने चली गयी।
   बुद्धिराम के पतन की कहानी यहीं स‌े शुरु हो गयी। बिना ऑनर्स के ही बी.एस. स‌ी. पास किया। पिता ने बुलाकर कहा, पढ़ाई-लिखाई में तो देख रहा हूं कि वैसी स‌फलता नहीं मिली। एक गंवार लड़का इससे अधिक कर ही क्या स‌कता है?
   बुद्धिराम गांव का लड़का था, अंततः गांव में ही लौट आया। डॉक्टर, इंजीनियर बनना स‌ंभव न हो स‌का। निकट के ही विष्टुपुर गांव में एक अच्छे स्कूल में तब स‌ाइंस के मास्टर की खोज हो रही थी। उनलोगों ने बुद्धिराम को लपक लिया।
    उस स‌मय बुद्धिराम की मनः स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। गुस्से, दुख में रात-दिन वह घुलता जा रहा था। कहां उसे पढ़ाई-लिखाई कर कुछ बन-वन कर विजय गर्व के स‌ाथ गांव लौटना था पर उसने बी.एस.सी. घसीट-घसीट कर पास किया। कुछ दिनों तक बुद्धिराम स्वयं में बड़बड़ाते हुए पागलों की भांति घूमता-फिरता रहा। पागलों की तरह ही उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी। पोशाक-वोशाक भी कुछ ठीक नहीं थी। आत्म-हत्या के उद्देश्य स‌े तीन बार वह रेल-लाइन पर गया भी था। पर ठीक अंतिम स‌मय में वह मरने का साहस बटोर नहीं स‌का था।
    इसके बाद एक दिन एक घटना घटी। ऎसे देखने में तो स‌ाधारण स‌ी ही घटना थी। किंतु उसके बाद बुद्धिराम के जीवन में नया मोड़ आ गया। आम बागान के भीतर स‌े विष्णु और बुद्धि जितेन पाडुइये के घर मिटिंग करने जा रहे थे। जितेन उस बार यूनियन के बोर्ड के इलेक्शन में खड़ा हुआ था। उसे जिताने के लिए खूब जोड़-तोड़ हो रहा था। तब बुद्धिराम किसी तरह स‌े अपने को कुछ में भुलाए रखना चाहता था। जीवन के हाहाकार और व्यर्थता को भूलकर मन को कहीं न कहीं लगाना था। नहीं तो बुद्धिराम के लिए जितेन के स‌िलेक्सन को लेकर इतना माथा खराब करने का क्या था?
     आम बागान के उस शरत् काल में एक स‌ुनहरी चांदी की स‌ी धूप-छांव थी। उस दिन स‌ुबह की वेला में खूब ताजी हवा बह रही थी। घास पर गिरे ओस अभी स‌ूखे नहीं थे।
   विपरीत दिशा स‌े एक लड़की पैदल चली आ रही थी। अकेली, नत-मस्तक। उसकी केश-राशि कुछ बंधे हुए थे। उसने आंचल स‌मेटकर अपने को ढंक लिया था। न जाने क्यों बुद्धिराम उसे देखकर प्रभावित हो उठा।
  यह लड़की कौन है?
  दूर स‌ाला! नहीं पहचानता? ..वह तो आदुरी है, आदुरी।
  बुद्धिराम तो इतना आश्चर्य में पड़ गया कि कुछ स‌ेकेंड हा करके खड़ा का खड़ा रह गया। एक गांव में रहते हुए भी आदुरी स‌े उसकी मुलाकात दीर्घ काल स‌े नहीं हुई थी। बुद्धिराम और कहीं नहीं देख रहा है। क्या यह वही आदुरी है?
   आदुरी स‌िर नवाए पास स‌े गुजर गयी। उसने घृणा भाव भी प्रकट नहीं किया। बस यही घटना उसके मगज में नए स‌िरे स‌े भूत बनकर दिनभर स‌वार रहा।
   घर लौटते ही उसने अपनी दादी को पकड़ा।  स‌ुनो दादी! एक बात है।
क्या बात है?
वही आदुरी याद है न?
आदुरी याद क्यों नहीं रहेगी?
मैं उसी स‌े विवाह करूंगा। कह दो।
  दादी ने उसके स‌िर, पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, स‌ुना है आदुरी की शादी ठीक हो गयी है। हरिपुर के चंद्रनाथ मल्लिक के लड़के परेश के स‌ाथ।
   बुद्धिराम ने मानो इतनी अजीब बात जीवन में कभी न स‌ुनी थी। आदुरी की शादी ठीक हो गयी है! तब तो बुद्धिराम बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा।
  उसी दिन वह अपने कई एक विश्वसनीय दोस्तों के स‌ाथ गोपनीय रूप स‌े परामर्श करने बैठ गया।
    केष्टो ने कहा, शादी को यदि न काटा गया तो फिर कोई आशा नहीं है। और यदि काटना ही है तो स‌बसे बढ़िया उपाय यह हुआ कि चंद्रनाथ मल्लिक को एक बेनामा चिठ्ठी लिखी जाए।
   तो यही तय हुआ। केष्टो प्रभावी ढंग स‌े चिठ्ठी लिख स‌कता है। उसकी दुकान स‌ाइन बोर्ड की है। अतः चिठ्ठी उसी ने लिख दी।
   यही कोई स‌ात दिन बाद स‌ुनने में आया कि शादी टूट गयी है।
  बुद्धिराम ने स‌ोचा था कि अब तो उसका काम स‌हज रूप स‌े ही हो जाएगा। उसने फिर स‌े अपनी दादी को पकड़ा। स‌ुन रहे हैं कि आदुरी की न कि शादी टूट गयी है। तो मैं शादी के लिए तैयार हूं।
    दादी प्रस्ताव लेकर गयी। बुद्धिराम बड़ा ही निश्चिंत था। एक तरह स‌े इस तरह का प्रस्ताव लड़की वालों को जाना तो स्वप्न जैसा ही था।
   किंतु शाम को लौटकर दादी ने बड़े भारी मन स‌े कहा, लड़की के माथा में भूत है।
क्यों दादी?
 उसने मुंह पर जवाब दे दिया, उस लड़के स‌े शादी करने स‌े तो गले में फंदा देना अच्छा है।
   इस वाक्य स‌े बुद्धिराम ऎसा दुखी हुआ कि कहा नहीं जा स‌कता। ऎसा कहा? हृदय में इतनी घृणा है। उस रात बुद्धिराम स‌ो नहीं स‌का। रात भर स‌ोचता रहा। दस बार जल पिया। घन-घन पेशाब किया। स‌िर के बालों को पकड़कर बैठा रहा। गुस्से में, क्षोभ से, अपमान स‌े उसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी।
   भोर वेला में उसे थोड़ी झपकी आयी। झपकी लेते-लेते उसने स‌ोचा, बहुत अच्छा। इस तरह की शान वाली लड़की ही तो चाहिए। गांव की लड़कियां तो भीगी बिल्ली बनी रहती हैं।किसी का कोई व्यक्तित्व ही नहीं होता। आदुरी के पास है। यह तो खूब अच्छी खबर है।
   स‌ुबह उसने स‌ात पृष्ठों की एक जबरदस्त चिट्ठी लिख डाली। उसने अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग किया। प्रायः पांच कोटेशन भी थे उसमें। स‌बसे अंत में उसने लिखा था, 'तुम्हारे बिना हमारा जीवन व्यर्थ है’।
   रसकलि के हाथ स‌े उसने चिट्ठी भिजवा दी और तीव्र गति स‌े घर में टहलने लगा। आज तक उसने कभी भी किसी लड़की को प्रेम-पत्र नहीं लिखा था। यही प्रथम था।
   रसकलि करीब घंटे-भर बाद लौट आयी। कहा, ओ भईया, चिट्ठी बिना पढ़े ही उसने फाड़ दिया।
 चुप। हल्ला मत कर। कुछ कहा नहीं?
क्या कहेगी? केवल पूछा, चिठ्ठी किसने दी है? तुम्हारा नाम लेते ही खाम स‌हित चिठ्ठी के टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिए।
   बुद्धिराम बहन के स‌ामने बड़ी ही खराब परिस्थिति में पड़ गया। गनीमत थी कि रसकलि थोड़ी बेवकूफ किस्म की लड़की थी। बुद्धिराम ने कहा, किसी स‌े कुछ न कहना। मैं तुम्हें एक अच्छा-सा कपड़ा खरीद दूंगा।
   तब मानो अपमानित, लांछित बुद्धिराम के पैर तले की जमीन ही खिसक गयी थी। स‌ारा दिन वह घर स‌े न निकला। किंतु दो दिन बाद उसे स‌मझ में आ गया कि आदुरी कितनी भी कठिन क्यों न हो यदि वह उसे जीत न स‌का तो जीवन वृथा है। फिर स‌े बुद्धिराम मूर्ख की तरह चिट्ठी-चपाटी लिखने नहीं गया। आदुरी आखिर किस धातु की बनी है, स‌मझने की चेष्टा करने लगा।
   गांव की लड़की है। अतः उसके घर वालों के स‌ाथ उसका अजन्मा परिचय तो है ही। पर वह धम करके किसी के घर-वर नहीं चला जाता था। पर इस घटना के बाद वह आदुरी के घर जाने लगा। आदुरी के काका, जेठू का स‌ंयुक्त परिवार बड़ा था। बड़ी गृहस्थी थी उनकी। तीन-चार बैठकें, बीस-पच्चीस कमरे। स‌ारा दिन घर में चहल-पहल बनी रहती थी। अतः बुद्धिराम को जाकर बहुत लाभ हुआ, ऎसा नहीं था। बाहर के कमरे में जाकर कभी केशो दादू के स‌ाथ बात-चीत करके चला आता तो कभी आदुरी के जेठू हारु बाबू का उपदेश स‌ुनकर ही आना पड़ता।
   चाय, बिस्कुट नहीं मिला, ऎसा नहीं हुआ। वह गांव का अच्छा लड़का था। खातिर लोग थोड़ा बहुत करते ही हैं। किंतु जिस उद्देश्य के लिए जाना होता था उसमें कुछ भी वह आगे नहीं बढ़ स‌का।
  कुछ दिन बाद उसे स‌मझ में आ गया कि इस तरह स‌े आदुरी के स‌मीप नहीं पहुंचा जा स‌कता। महिला महल (संसार) में प्रवेश करना होगा। उसमें भी उसे किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। आदुरी के अंदर महल में भी प्रवेश करना वह जानता है। आदुरी की एक भाभी ने मुंह बिचका कर कह ही दिया, हां बुद्धि बाबा! तुमको तो कभी इस घर में आते-जाते नहीं देखा। तुम्हारा इरादा क्या है? थोड़ा खुलकर बोलो तो। मुझे तो तुम्हारी आंख, मुंह देखकर लक्षण ठीक नहीं लगते।
   इस बात स‌े एक बार वह फिर अपमानित हुआ। वह पुरुष था। किस उद्देश्य स‌े वह मां, मौसी, भाभी श्रेणी की महिलाओं के स‌ाथ बैठकर बात कर स‌कता था? अतः बुद्धिराम को अपनी जाल स‌मेटनी पड़ी।
   इसके बाद फिर स‌े एक विपत्ति आयी। आदुरी के लिए फिर स‌े एक रिश्ता आया। चेहरे मोहरे स‌े स‌ुंदर है, थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना जानती ही है। अतः जो भी आदुरी को देखता पसंद करके ही जाता।
  इस द्वितीय पात्र पक्ष को भी एक बेनामा पत्र लिखना पड़ा। शादी टूट भी गयी पर बुद्धिराम का काम आगे बढ़ गया ऎसा भी नहीं हुआ। बल्कि उल्टे एक नई विपत्ति दिखाई पड़ी। कोई बेनामा चिट्ठी लिखकर आदुरी की शादी तोड़ दे रहा है, यह प्रकट हो गया। यह व्यक्ति कौन है? उसकी खोज-बीन शुरु हो गयी। तृतीय बार जब एक और पात्र पक्ष आदुरी को पसंद कर गया तभी आदुरी के पिता, जेठू ने पात्र पक्ष को कह ही दिया, एक बेनामा चिट्ठी जायेगी। महत्व नहीं दीजिएगा। कोई बदमाश व्यक्ति यह काम कर रहा है।
   खूब डरा-सहमा रहा बुद्धिराम। कोई भरोसा देकर कहा, अबे घबराता क्यों है? ऎसा कलंक की बात लिख देंगे कि वर पक्ष भड़क जाएगा।
   किंतु इस तृतीय बार बुद्धिराम पकड़ा गया। आदुरी के स‌ात गुण्डा भाइयों ने एक दिन बादाम-तला के पास उसे धर दबोचा। स‌तीश बहुत ही बदमाश था। उसने स‌ाइकिल स‌े बुद्धिराम को खींचकर उतार लिया।
  अरे क्या चाहता है रे तू?
क्या चाहता है?
 बनता है! आदुरी की शादी काटने के लिए चिट्ठी कौन लिखता है?
  मैं नहीं।
तुझे छोड़ कर और कौन देगा?
मेरा क्या स्वार्थ है?
  मझली भाभी ने बताया था न कि तू हमलोगों के घर का चक्कर लगाता था। बुद्धिराम की बुद्धि खो गयी थी। सच को गोपनीय रखने का अभ्यास उसे न था। स‌जाकर झूठ बात उसे कहना भी न आता था। इसलिए वह हकलाने लगा।
  स‌तीश ने अवश्य मार-पीट नहीं की थी। कहा, यदि आदुरी के स‌ाथ शादी ही करना चाहते हो तो यह बात कह ही स‌कते हो। गांव में तुम्हारे जैसा लड़का ही कितने हैं? और यदि स‌चमुच में बदमाशी के उद्देश्य स‌े यह किया गया होगा तब तो….
   यह स‌ब स‌ुनते ही बुद्धिराम ने रो दिया। अपने को स‌ंभाल कर बोला, शादी करना चाहता हूं।
 शाबाश! कहकर खूब पीठ ठोकी थी स‌तीश ने। कहा, यह बात है……आगे कहने स‌े ही इसकी व्यवस्था हो जाती।
    किंतु व्यवस्था नहीं हुई। अगले दिन स‌तीश ने आकर उसे अकेले में बुलाकर कहा, मुश्किल क्या हो गया जानते हो? तुम्हारे ऊपर आदुरी बहुत क्रोधित है। क्या किया था तुमने?
  स‌ब स‌ुनने के बाद स‌तीश ने कहा, अभी चुपचाप रहो, देखते हैं क्या किया जा स‌कता है।
  केवल कहने की थी। स‌तीश कुछ न कर स‌का। दाल नहीं गली।
   किंतु इसके बाद स‌े आदुरी के लिए कोई नया स‌ंबंध भी नहीं आया। यदि आया भी तो आदुरी भड़क उठती थी।
  यह स‌ब स‌ात-आठ वर्ष पहले की बात है। इसी स‌ात-आठ वर्ष में बुद्धिराम ने छिपकर, ओट स‌े ही आदुरी को पाने के लिए स‌भी अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग किया। प्रति वर्ष पूजा में स‌ाड़ी भेजता। थोड़ा-बहुत उपहार भी भेजता। पर आदुरी ग्रहण नहीं करती। लेकर फेंक देती या किसी को दान कर देती थी।
   किंतु उम्र तो रुकी नहीं है। आदुरी के विवाह की उम्र निकलने लगी। बुद्धिराम भी तीस को पार कर गया है। दोनों तरफ कुछ भी आगे नहीं बढ़ा। आदुरी के भाग्य का दरवाजा बंद ही रहा।
  धान खेत स‌े स‌ाइकिल को ढकेलते हुए बुद्धिराम यही स‌ब स‌ोच रहा था।
  रास्ते पर पहुंचते ही वह स‌ाइकिल पर चढ़ा। उसकी कमीज की जेब में शीशी लटक रही थी। कष्ट को स‌हना ही था उसे.….
पक्की स‌ड़क से लगी यहीं स‌े गांव की स‌ड़क शुरु होती थी। इस बस स्टॉप पर कुछ दुकाने थीं। षष्टी ने हांक लगायी, कौन है रे? ....बुद्धि तो नहीं?
   बुद्धि स‌ाइकिल स‌े उतर गया। ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। एक भाड़ चाय होने स‌े अच्छा होता।
  षष्टी थोड़ा ज्यादा बोलता है। नाना प्रकार की बातें बकता जा रहा था। वह थोड़ा चमचागिरी करने वाला व्यक्ति है। जिसको देखता है थोड़ा-थोड़ा तेल मारना उसका स्वभाव है। अतः पुरानी बातों को छेड़ते हुए कहा, कहो तो …तुम्हें कितना बड़ा आदमी बनना था? गांव में आज तक तुम्हारे जैसा नम्बर पाकर पास होने वाला कोई न हुआ। बसंत स‌र तो अक्सर कहते थे, बुद्धि के जैसा लड़के बहुत कम होते हैं। यदि लगा रहता तो जज, मजिस्ट्रेट कुछ बनकर ही रहता।
   यह सब व्यर्थ की पुरानी बातें थीं। बुद्धिराम उसे और कुरेदना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे उसका जोश ठंडा पड़ चुका है। अब वह गांव का एक मास्टर है। अपने को उसने धीरे-धीरे छोटा करके आंक लिया है। स‌भी को स‌ह भी लिया है। किंतु यदि कोई कुरेद देता है तो आज भी हृदय में उथल-पुथल मच जाती है।
  षष्टी चुप कर। वह स‌ब बातें करके अब क्या होगा?
 हमलोग तो स‌ब स‌मय तुम्हारे बारे में ही बातें करते रहते हैं। आंखों के स‌ामने क्या नहीं देखा। तुम्हारे भीतर क्या चीज थी।
   बुद्धि चाय की भाड़ फेंकर उठ पड़ा। कहा, चल रहे हैं। छात्र स‌ब आकर बैठे होंगे।
 जा।
बुद्धि स‌ाइकिल पर चढ़ गया। बड़ी स‌ड़क को छोड़ वह गांव की स‌ड़क की ओर मुड़ गया। अंधेरे में हजार-हजार जुगनू टिमटिमा रहे थे। पर उस रोशनी स‌े भी स‌ड़क प्रकाशित नहीं होती। फिर भी लाखों लाखों टिमटिमाते हैं। फिर टिमटिमाने स‌े क्या लाभ?
  मात्र दस लड़के उसके घर में आए हुए थे। प्रत्येक स‌े बीस रुपए करके दो स‌ौ मासिक आना चाहिए। किंतु नगद रुपया गांव वालों स‌े निकालने में उसे पसीना आ जाता है। बहुतों का तो बाकी-बकाया ही पड़ जाता है। फिर भी बुद्धिराम स‌बको पढ़ाता है। अधिकतर मंद बुद्धि के ही हैं। दो-एक जन ही कुछ स‌मझते-बूझते हैं।
   पढ़ाने बैठने के पहले ही उसने पातू को बुलाकर एक शीशी दी और कहा, जाकर उस घर में दे आओ। उसी के हाथ में देना।
  रसकलि का विवाह हो गया था। छोटी उम्र में ही हो गया था। अभी रसकलि की जगह बुद्धिराम की भतीजी पातू ने ले ली है। आदुरी और बुद्धिराम के बीच के स‌ंबंध को लेकर दोनों घरों के लोग अनजान नहीं हैं। अतः नाहक लज्जा पाने का कोई कारण नहीं है।
  हाथ-मंुह धोकर बुद्धि पढ़ाने बैठ गया। कुछ देर तक उसका मन इधर-उधर नहीं भटका। छात्रों में अपने को डुबा कर बहुत कुछ भूला जा स‌कता है।
इसी तरह अपने को भुलाए रखना बुद्धि के लिए स‌बसे बड़ी बात है। जितना स्वयं को भुलाए रखेगा उतना ही अच्छा है। उसका जीवन आखिर कितना लम्बा है। एक दिन आयु खत्म हो ही जाएगी। तब शांति मिल जाएगी। बहुत शांति मिलेगी।
   पढ़ाकर जब बुद्धिराम उठा तब तक रात हो चुकी थी। छात्र अपनी-अपनी लालटेन लेकर उसके आंगन स‌े चले जा रहे थे। बुद्धिराम ने यह स‌ब बरामदे स‌े देखा। इसके बाद वह अकेला रह जाएगा। नितांत अकेला।
   पातू लौट आयी थी। वह बरामदे में एक बच्चे को गोद में लिए स‌ुलाने की चेष्टा कर रही थी।
  हाथ में दिया था तो!
  हां जी।
 कुछ कहा?
ना।शीशी पर क्या लिखा था, पढ़ा। फिर उसे रख दिया।
  भात की गंध आ रही थी। जेठा मशाई की खांसने की आवाज स‌ुनाई पड़ी। न जाने कौन कुएं स‌े छपाक-छपाक पानी भर रहा था। दो कुत्तों में जोरों की लड़ाई छिड़ी हुई थी। दरवाजे स‌े बुद्धिराम कुहासे स‌े स्निग्ध ज्योत्सना को अपलक निहारता रहा।
  नहीं बचे रहने का कोई मतलब नहीं रह गया है।
   एक दीर्घ स्वांस लेकर उसने कमरे में प्रवेश किया। उसका कमरा घर का स‌बसे छोटा कमरा है। कमरे में एक चौकी है, एक मेज और एक कुर्सी है। एक किताब की अलमारी है।
    बुद्धिराम कुर्सी पर बैठकर लालटेन के प्रकाश में पुस्तक के पन्नों को थोड़ी देर पलटता रहा। किताब कैसी है, किस विषय की है, वह भी उसे स‌मझ में नहीं आ रहा था। किताब रखकर खिड़की स‌े बाहर देखने लगा। बहुत देर तक बाहर देखता रहा। पेड़ के बीच स‌े ज्योत्सना को देखा जा स‌कता था। पर ज्योत्सना का कोई अर्थ नहीं है। आंधी-पानी, ग्रीष्म-शीत किसी का कोई अर्थ नहीं है। फिर भी बचे रहना होगा। बाप रे! यह क्या तकलीफ है।
  भाभी ने खाना खाने के लिए बुला लिया। इसलिए वह बच गया। खाने का भी कोई अर्थ नहीं होता। फिर भी यह एक काम है। कुछ स‌मय कट ही जाता है। बातचीत होती है, हंसी ठिठोली होती है। स‌मय बीतता है। बुद्धिराम आग्रह के स‌ाथ भोजन पर बैठ गया।
  खाकर बुद्धिराम अपने कमरे में आकर कुछ देर कुर्सी पर बैठा रहा। बैठे-बैठे कुर्सी पर ही उसे कब नींद आ गयी कौन जाने।
   पातू ने आकर जगाया। उठो स‌झले चाचा! बिस्तर लगाकर मसहरी टांग दी है। स‌ो जाओ।
  जम्हाई लेते हुए बुद्धिराम उठ खड़ा हुआ। पातू ने फिर कहा, आज उस घर में स‌भी का मन खराब है। निवारन दादू की स्थिति ठीक नहीं है। आदुरी बुआ की आंखें लाल है। खूब रो रही थी।
   निवारन का मतलब आदुरी के पिता स‌े है। बुद्धिराम ने खबर स‌िर्फ स‌ुनी। मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह स‌ो गया।….बाप यदि मर गया तो आदुरी के स‌िर पर स‌े छत हट जाएगी। यही स‌ब स‌ोचते-सोचते वह स‌ोया। आजकल वह निर्बोध होकर स‌ोता है। धीरे-धीरे उसका दिमाग मूर्ख की तरह होता जा रहा है। बोध बुद्धि कमती जा रही है। इसलिए उसे गहरी नींद आती है।
  आधी रात को रोने-बिलखने की आवाज स‌े नींद टूट गयी। बिस्तर स‌े उठ कर वह स‌ीधा बैठ गया। दूर स‌े हल्ला-गुल्ला आ रहा था। तब क्या आदुरी के पिता का स‌मय हो गया?
  उठे या न उठे इसी स‌ोच में बुद्धिराम था। उस घर स‌े नाता ही उसका क्या था? नहीं जाने स‌े भी होगा। रात थी और ठंड गिर रही थी। पैर तरफ मोड़ कर कांथा रखा हुआ था, खींच कर उसे ओढ़ लिया। उसे आराम मिला। बुद्धिराम ने आंखें मूंद ली।
   प्रायः बुद्धिराम स‌ो ही गया था। ठीक इसी स‌मय उसका मझला भईया दरवाजा थपथपाने लगा, बुद्धि उठ। निवारन जेठा का हो गया। एक बार जाना चाहिए। उस घर स‌े बुलाने आया है।
  बुद्धिराम उठा। जो लोग रात में मरते हैं लगता है उनकी बुद्धि, अक्ल की कमी है। कहा, चल रहे हैं।
 गमछे को कंधे पर लेकर बुद्धिराम निकल पड़ा। पूरा गांव जाग गया था। आजकल गांव की जनसंख्या कुछ बढ़ गयी है। रास्ते पर निकलते ही ढेर स‌ारे लोग दिखाई पड़े। इस मध्य रात्रि में भी चलीस-पचास लोग रास्ते पर इकट्ठा थे। आदुरी के घर जो जाना है।  
   बुद्धिराम ने एक जम्हाई ली। शरीर अभी भी नींद में थोड़ा डूबा हुआ है। शरीर का जो भाग जगा हुआ है उससे आगे बढ़ते नहीं बन रहा है।
   घर के आंगन में ही निवारन जेठू को तुलसी के पास रखा गया है। जोरों का रोना-धोना गला फाड़कर कम्पटीशन की तरह चल रहा है। इसका कोई मतलब नहीं होता। जन्म के स‌ाथ ही तो मृत्यु का बीज वपन भी हो गया था। इसी प्रकार स‌बको जाना होगा। स‌भी जाएंगे।
   कोई दस लालटेन और दो हैजक बत्ती के प्रकाश में भी इस भीड़ के बीच बुद्धिराम को कहीं भी आदुरी नहीं दिखी। आदुरी खूब शांत अकेले में रहने वाली स्वभाव की लड़की है। जोर स‌े रोएगी नहीं, बुद्धिराम इसे जानता है। और यही स‌ोचकर वह घर के भीतर गया। लगता है कि आज भी उसका मुख देखने मात्र स‌े ही आदुरी को घृणा होती है।
  यही कोई चार महीना पहले ही प्लूरिस स‌े बुद्धिराम को मुक्ति मिली है। छाती स‌े गमले का गमला स‌िरिंज के माध्यम स‌े पानी निकालना पड़ा था। उसे ठंडा स‌े बचना है। किंतु इस बात को बुद्धिराम के अलावा कौन जानता है?
   श्मशान जाने स‌े स्नान करके ही लौटना पड़ेगा उसे। रात्रि के अंतिम पहर में हाड़ कंपा देने वाली हवा बह रही है। उसे ठंड लग जाएगी। डॉक्टर ने ठंड स‌े बचने की स‌ख्त हिदायत दी है उसे।
   बुद्धिराम थोड़ा मन ही मन हंसा। एक बार वह रेल लाइन पर अपनी जान देने गया था। उसे मृत्यु स‌े भय-टय नहीं लगता। किसी न किसी रूप में तो एक दिन जाना ही होगा।
   रोने-धोने के बीच ही कुछ लोग बांस-वांस काटने लगे हैं। रस्सी-वस्सी आ गयी है। बुद्धिराम यह स‌ब थोड़ी दूर स‌े ही देख रहा है। असल में यह स‌ब देखने की कुछ चीज ही नहीं है।
   लोगों में स‌लाह-मसवरा चल रहा है। उस दल में बुद्धि के पिता, जेठू स‌ब हैं। दूसरी तरफ गांव के कुछ कम उम्र वाले लड़के हैं जो कमर में गमछे बांधे तैयार हैं।
  अचानक अप्रत्यासित रूप स‌े बुद्धिराम ने आदुरी को देखा। उत्तर के कमरे के बरामदे में तीन-चार महिलाएं खड़ी थीं। उस दल में बुद्धिराम की जेठी मां भी थी। आदुरी ने अचानक कमरे स‌े निकल कर बुद्धिराम की तरफ देखा। पिछले दस वर्ष में शायद यह पहली बार घटित हुआ।
  बुद्धि थोड़ा बुद्धिहीन हो गया। अस्थिर हो गया। नहीं, वह गलत नहीं देख रहा है। हैजक लाइट में स्पष्टता के स‌ाथ दिखाई पड़ रहा है। पिता को नीचे स‌ुलाया गया है। पर वह उसी के तरफ देखे जा रही है। एकदम अपलक भाव स‌े।
  आज बुद्धिराम ने आंखें हटा ली। इसके बाद ओट स‌े ही देखने लगा। लड़की को हुआ क्या?
  आदुरी उसकी बड़ी मां स‌े न जाने क्या-क्या बोल रही थी। इसके बाद वह हट गयी। आंचल स‌े मुंह छिपा कर दुखी मन स‌े गंभीरता के स‌ाथ दीवार के स‌हारे वह खड़ी हो गयी। इससे आदुरी का स‌ौंदर्य और निखर गया था। कितनी सु‌ंदर लग रही थी वह।
  बड़ी मां ने उसे हाथ के इशारे स‌े बुलाया।
बुद्धिराम ने तुरंत पहुंच कर पूछा, क्या है बड़ी मां?
शव को छुआ है क्या?
  ना! किंतु अब तो छुना ही होगा।
जरूरत नहीं है बाबू! घर जाओ। शरीर पर गंगा-जल और तुलसी पत्ता छिड़क कर स‌ो जाओ। तुमको श्मशान नहीं जाना होगा।
क्यों?
   फिर क्यों? कुछ दिन पहले ही तो बीमारी स‌े बचे हो। ठंड लगाने स‌े फिर बचोगे क्या?
  मेरा कुछ नहीं होगा बड़ी मां। चिंता मत करो।
  क्यों? तुम्हें जाने की जरूरत क्यों है? श्मशान जाने वालों की कमी है क्या? कितने लोग तो जुट गए हैं। आदुरी ने याद दिला दिया। इसलिए। जाओ बाबू, घर जाओ।
   और एक बार स‌ुनने की इच्छा हो रही थी। कहा, क्या कहा? किसने याद दिला दिया था?
  आदुरी पास ही खड़ी स‌ब स‌ुन पा रही थी। हिली नहीं।
 बड़ी मां भी उसे और महत्व न देकर महिलाओं स‌े बात करने लगी। बुद्धिराम गंभीरता स‌े चलता हुआ नवयुवकों के दल में जा खड़ा हुआ।
  बुद्धि दा जाओगे तो!
झाऊंगा नहीं? मतलब?
 बुद्धिराम गया। खुशी खुशी गया। आज बहुत दिनों के बाद उसे भीतर स‌े एक विशेष प्रकार का आनंद हो रहा था। नहीं, प्रतिशोध लेने का आनंद नहीं। प्रतिशोध में कोई आनंद नहीं है। आज तो उसे आनंद हो रहा था किसी अन्य कारण स‌े। पर किस कारण स‌े, वह ठीक-ठीक कह नहीं स‌कता।
   शव जला। बुद्धिराम ने जमकर नदी में स्नान किया। अन्ततः दुनिया के एक आदमी ने तो उसकी बीमारी को याद रखा है। अब और मरने में किसी तरह की बाधा क्या है?
  भींगे शरीर में जब वह नदी स‌े बाहर निकल आया तो बाहर की कड़ाके की ठंड स‌े वह थर-थर कांपने लगा। स‌भी कांप रहे थे। किंतु उसका कांपना स‌बसे अलग था। लोगों को स‌मझ में नहीं आया। केवल बुद्धिराम ही अपने भीतर की उथल-पुथल को महसूस कर रहा था।
  वह स‌तीश के पास ही खड़े होकर गमछे को निचोड़ रहा था। सतीश को अचानक क्या याद आया कि बुद्धिराम की ओर मुड़कर कहा, हां रे बुद्धि! तुमने जमकर क्यों नहाया?
   क्यों नहीं नहाऊंगा?
सतीश ने धीमे स‌े कहा, कुछ दिन पहले न कि तुम्हें एक बीमारी हुई थी?
  तुम्हें किसने कहा?
स‌तीश ने गमछे को फटास्-फटास् करके झाड़कर स‌िर पोंछते हुए कहा। निकलते स‌मय आदुरी ने मुझे पकड़ा था। कहा, रांगा दा! बुद्धिराम का शरीर ठीक नहीं है। ठंडे पानी स‌े स्नान करने स‌े मर जाएगा। उस‌को जरा देखना।
   बुद्धिराम ने कुछ नहीं कहा। गले में कोई बात अटकी हुई थी। आंखों में पानी आ रहा था।
स‌तीश ने शरीर पोछते-पोछते कहा, तुम्हें बुद्धि नहीं है? किस बुद्धि स‌े तुमने स‌ुबह को स्नान किया?
  दुर स‌ाला! आज ही तो स्नान का दिन है। आज स्नान नहीं करेंगे तब कब करेंगे?

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Saturday 16 August 2014

डकैत तो नहीं.....सुकुमार राय (बाल कहानी, बांग्ला स‌ाहित्य)


प्रकाशित- बाल स‌ाहित्य संसार (World of Children's Literature) August-2, 2014
अनुवाद- जयप्रकाश स‌िंह बंधु

शाम का वक्त था। रोज की तरह हारु बाबू काम के बाद अपने घर लौट रहे थे। स्टेशन स‌े उनका घर आधा मील की दूरी पर था। अंधेरा घिरने लगा था। अतः हारु बाबू के पैरों में तेजी आ गयी। एक हाथ में बैग और दूसरे में छाता थामें हारु बाबू दनादन घर की ओर बढ़े जा रहे थे।

थोड़ी दूर चलने पर उन्हें यह आभास हुआ कि कोई है जो उनके पीछे-पीछे चल रहा है। आड़ी-तिरछी नजरों स‌े उन्होंने देखा, तो स‌ही में कोई था जो हनहनाते हुए उनकी ओर चला आ रहा था। उनकी आशंका स‌ही स‌ाबित हुई। भय ने उन्हें सताया। कहीं चोर-डकैत तो नहीं?... बाप रे! स‌ामने स‌ुनसान मैदान की याद आते ही उनके हाथ-पांव फूल गए। जरुर स‌ुनसान मैदान में अकेले पाकर मुझ पर हमला कर देगा। कहीं दो-चार लाठी मेरी गर्दन पर जमा दिया तो आज तो मैं गया काम स‌े। यह स‌ोचकर उनके कांपते हुए दुबले-पतले पैरों ने उनकी चाल को गति दी। अब वे लगभग दौड़ने लगे। पीछे तिरछी नजरों स‌े फिर देखा।... बाप रे! पीछा करने वाला भी उन्हीं की भांति दौड़ रहा है।

तब हारु बाबू ने स‌ोचा आज इस स‌ुनसान मैदान को पार करना ठीक नहीं होगा। इस स‌ीधे रस्ते को त्यागने में ही भलाई है। उन्होंने उस घुमावदार रास्ते को पकड़ लेना उचित स‌मझा जो वैद्य पाड़ा स‌े होकर उनके घर को जाता था। थोड़ा पैदल अधिक ही चलना पड़ेगा तो क्या, जान तो बचेगी।  निर्णय ले चुके थे। एकाएक वे दाहिने मुड़कर एक गली में घुस पड़े। वहां एक बेड़ा को कूद कर पार किया और एक दौड़ में स‌ीधे मुख्य मार्ग पर आ निकले। पर नजर तो उनकी पीछे टिकी हुई थी।.... देखा तो काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी। वह भी कितना दुष्ट था। उन्हीं के जैसा कूदता फांदता, उसी गति स‌े वह भी बेरस्ते स‌े मुख्य मार्ग पर आ धमका था। 

हारु बाबू ने अब अपना छाता कसकर पकड़ लिया। अपनी स‌ुरक्षा पर विचार किया। अब किस्मत में जो होगा वह तो होगा ही। यदि वह स‌ामने आ गया तो छाता घुमाकर उसकी गर्दन पर दो-चार वार वे जरुर कर देंगे। उन्हें स्मरण हो आया कि बचपन में किस प्रकार वे जिमनॉस्टिक किया करते थे। वह किस दिन काम आयेगा? यही स‌ोचकर उन्होंने अपने हाथों को मोड़कर दो-तीन बार मांशपेशियां फुलाने की कोशिश की। जांचना चाहा कि अब भी वह ताकत शेष है कि नहीं। 

थोड़ी ही दूर पर काली मंदिर था। उसके नजदीक पहुंचते ही उन्होंने फिर स‌े एक बार मुख्य स‌ड़क छोड़ दिया और जंगल-झाड़ को फांदते-रौंदते हुए भागने लगे। पीछे स‌े पैरों की आवाज स‌े उन्हें स‌मझते देर न लगी कि वह दुष्ट व्यक्ति भी ठीक उन्हीं की तरह बदहवाश पीछा कर रहा है। अब तक उन्हें यकीन हो गया था कि डकैत नहीं तो और क्या है? कोई  भला आदमी उनका इस तरह पीछा क्यों करेगा? आफत बहुत बड़ी थी। यह स‌ोचकर ही उनके हाथ पांव ठंडे पड़ गए। माथे पर पसीने की बूंदे दिखाई पड़ी।

ठीक इसी स‌मय उनके कानों में कुछ लोगों की बातचीत के स्वर स‌ुनाई पड़े जो काली मंदिर के घाट पर बैठे लोगों के थे। हारु बाबू की हिम्मत थोड़ी बंधी, वे हठात् छाता ताने पीछे मुड़े और स‌िंह गर्जना करते हुए बोले- "क्यों रे! क्या मंशा है तेरी? अपनी भलाई चाहता है तो..।"....किंतु हारु बाबू ने जब उस व्यक्ति को गौर स‌े देखा तो वह बड़ा निरीह जान पड़ा। कम स‌े कम वह डकैत तो किसी भी दृष्टि स‌े न लगता था। 

हारु बाबू अब तक काफी नरम पड़ चुके थे। पर इस व्यक्ति ने उन्हें बहुत स‌ताया था। संदेह मिटाने के लिए उन्होंने डांटते  हुए पूछा- "इस प्रकार बिना मतलब का तू मेरा पीछा क्यों कर रहा है?" वह बड़ा भयभीत था। दबे हुए स्वर में उसने कहा कि स्टेशन मास्टर ने उसे बताया था कि आप बलराम बाबू के घर के पास ही रहते हैं। आपके पीछे-पीछे जाने स‌े मैं ठीक गंतव्य तक पहुंच जाऊंगा।... क्या आप रोज इसी तरह कूदते-फांदते हुए घर लौटते हैं? 
 यह स‌ुनकर हारु बाबू का मुख खुला का खुला रह गया। उन्हें कुछ उत्तर देते न बना। उन्होंने ठंडी स‌ांस ली और बड़े ही आराम कदमों स‌े अब स‌ीधे रास्ते स‌े घर की ओर बढ़ चले।

                                                    ***