Monday 5 December 2011

गाजर मूली की लड़ाई (हास्य बाल एकांकी)

रंग-संकेत   
मुख्य पात्र- गाजर (छात्र), मूली (छात्रा), लौकी मैम (शिक्षिका), बैंगन स‌रकार (मॉनिटर), कुम्हड़ा, स‌हजन, मिर्ची, नेपथ्य स‌े ।
स्थान-सब्जी इंगलिश स्कूल (मंच पर एक स‌ाइन बोर्ड)
नेपथ्य स‌े- (अब हम आप स‌बको एक ऎसे स्कूल ले चल रहे हैं जिसका नाम है स‌ब्जी इंगलिश स्कूल जहां के  छात्र-छात्राएं स‌ब्जी हैं। ये लोग भी आप ही के जैसे हैं जो आपस में खूब लड़ते हैं, पर बड़े प्यारे हैं। आज आपको ये खूब हंसाएंगे, इतना कि हंसते-हंसते पेट फूल जाए। तो शांति स‌े एकांकी का भरपूर मजा लेने चलते हैं-सब्जी इंगलिश स्कूल।)
(स्कूल लगने की घंटी बजती है। पर्दा खुलता है। इधर-उधर घूम रहे छात्र स‌ब अपनी-अपनी जगह बैठ जाते हैं। मॉनिटर क्लास का माइंड करने लगता है। गाजर-मूली आपस में बैग रखने को लेकर लड़ने लगते हैं तो मॉनिटर उनका नाम बोर्ड में लिख देता है। तभी लौकी मैम का प्रवेश।)


छात्र- गुड मॉर्निंग लौकी मैम....।
मैम-गुड मॉर्निंग स्टूडेंट्स, स‌ीट डाउन। इतना शोर क्यों हो रहा था?
छात्र-(बड़ी नम्रताके स‌ाथ) सॉरी लौकी मैम....।
मैम- ओके..ओके। मैं अटेंडेंस् लेने जा रही हूं। कृपया ध्यान दीजिएगा।
1.कुमड़ो बनर्जी.......(उत्तर नहीं मिलने पर जोर स‌े)....कुमड़ो बनर्जी....(नींद स‌े जागते हुए)..यस मैम।
स‌ो रहे थे क्या? पहले पीरियड स‌े ही स‌ोने लगे।..स्टूपीड। बैठो।
2.टमाटर लाल (यस मैम)
3.गाजर स‌िंह (प्रेजेंट मैम)
4.मूली चटपटी (उपस्थित)
5.करेला ढोलक वाला (एक छात्र- वो ढोलक बजाने गया)
6.पटल मजूमदार (यस मैम)
7.चुकंदर खान (एबसेंट)
8.स‌हजन लाठी वाला (यस मिस)
9.भिंडी भुजिया वाला (एबसेंट)
10.मिर्ची हरिहरण (प्रेजेंट)
11.आलू पाताल वासी ...2...(अभी तो यहीं था......तभी बेंच के नीचे स‌े निकलता है।..मैम पूछती हैं...नीचे क्यों छुपा था?..मैं तो जमीन के अंदर ही रहता हूं।...छात्र हंसने लगते हैं।)
12. बैंगन स‌रकार (यस मैम)


लौकी मैम- (डांटते हुए)  हू इज मॉनिटर?...बोर्ड पर गाजर मूली का नाम क्यों आया?
बैंगन स‌रकार- अइयो...मैम दोनों बैग रखने को लेकर कब स‌े लड़ रहे हैं। मां-बाप, कुल-खानदान किसी को नहीं छोड़ा। दोनों अपना-अपना गुण बता एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। मेरी तो कोई स‌ुनता ही नहीं।


नेपथ्य स‌े- मैम को मॉनिटर ने दोनों की लड़ाई का जो विवरण स‌ुनाया वह इस प्रकार स‌े है। अब आप लड़ाई का असली मजा उन्हीं के मुख स‌े लें।


गाजर- (धमकाते हुए) चल हट, जगह तेरे बाप की है? घसक नहीं तो मार के लाल कर दूंगा।
मूली- बड़ा आया लाल करने वाला। मैं लाल क्यों होने जाऊं? हर हालत में मैं तो स‌फेद ही रहूंगी। मैं हाथा-पायी में विश्वास नहीं करती। जबान की लड़ाई लड़। तेरे कुछ अच्छे गुण भी हैं या यूं ही हेकड़ी दिखाता फिरेगा?
गाजर- गुण पूछ रही है।....ही..ही.ही...। अरे! जानती नहीं कि मैं विटामिन ए का मालिक हूं। लोग मुझे खा-खाकर अपनी आंखों की रोशनी बढ़ा लेते हैं। यदि किसी को रात में कम दिखाई देने लगे तो बस मुझे आजमाए। मुझे खूब खाए, फिर देखिए मैं कैसे उसकी दृष्टि बढ़ा दूंगा।...अब तू बता...विटामिन ए की मालकिन है तू?
मूली- बड़ा घमंड है तूझे अपने ऊपर? भले मुझमें विटामिन ए नहीं मिलता, पर मैं भी आंखों को तंदरुस्त रखने में मददगार हूं। विटामिन बी-1, बी-2 द्वारा मैं भी आंखों को ठीक रखती हूं।
गाजर- ये विटामिन तो मुझमें भी होते हैं। इस प्रकार तू मेरी बराबरी नहीं कर स‌कती। लड़की है तो लड़की बनकर रह। लड़का बनने की कोशिश न कर।
मूली- अब लड़का-लड़की का स‌वाल कहां स‌े आ गया? अब तो हम स‌ब बराबर हैं। बल्कि  लड़कियां तो हर क्षेत्र में लड़कों स‌े आगे निकल रही हैं। खबर-वबर स‌ुनता भी है कि नहीं?...चल अब अपना अगला गुण बता।
गाजर- मुझमें विटामिन स‌ी होता है। जब कोई खेलता-कूदता है और कहीं कट-फट जाता है तो बहते खून को मैं जमाने में मदद करता हूं।
मूली- यह काम तो मैं भी करती हूं। विटामिन स‌ी तो मानव स‌माज को मैं भी देती हूं।


नेपथ्य स‌े-कुम्हड़ा बड़ी देर स‌े लड़ाई स‌ुन रहा था। स‌ब यही स‌ोच रहे थे कि वह ऊंघ रहा है, पर वह तो लड़ाई का मजा ले रहा था। उठकर आया और दोनों में स‌ुलह कराने की दृष्टि स‌े बोला...


कुम्हड़ा- तुम दोनों ही महान हो। तुम दोनों ही मनुष्य जाति की हड्डी को मजबूत करते हो। उनकी आंखों को ठीक रखते हो। त्वचा को स‌ुंदर बना उन्हें निखार देते हो।....अब बैठो भी....नहीं तो डायरी में जेनरल रिमार्क्स आ जाएगा।
(वैंगन कुम्हड़ा को अपने जगह जाने का आदेश देता है।)


नेपथ्य स‌े- पर दोनों पर बेचारे कुम्हड़ा का कोई असर नहीं हुआ। मूली ने ललकारते हुए लड़ाई को आगे बढ़ा ही दिया।


मूली-  बता तेरे में कौन-कौन स‌े मिनरल्स होते हैं?
गाजर-(थोड़ा याद करने के बाद) मिनरल्स..। मैं लोगों के शरीर में स‌ोडियम, फॉसफोरस पहुंचाता हूं। और इस प्रकार उनकी हड्डियों को मजबूत करता हूं। उनका वजन स‌ही रखने में मदद करता हूं।....तू भला कौन-कौन स‌े मिनरल्स रखती है?
मूली- (तपाक स‌े उत्तर दिया) मैं पोटेशियम, स‌ोडियम और स‌ल्फर की मालकिन हूं। मांसपेशियों के विकास में स‌हायक हूं। हड्डी भी मजबूत करती हूं।
नेपथ्य स‌े- स‌हजन जो अभी तक खिड़की पर लटका झूला झूल रहा था, दौड़ा आया। लड़ाई बंद कराने की कमान स‌ंभाली।


स‌हजन- अंग्रेज मुझे ड्रम-स्टीक कहते हैं। जो बच्चे लड़ते-झगड़ते हैं और स‌ब्जी खाने में रुचि नहीं लेते , मैं उनकी पिटाई अपनी चाबुक स‌े करता हूं। तुम दोनों लड़ाई बंद करो नहीं तो दो-दो चाबुक तुमलोगों को भी लगाऊंगा।


नेपथ्य स‌े- लड़ाई अभी त्रिकोणीय रूप लेता इसके पहले ही बैंगन ने बीच-बचाव किया और स‌हजन को फिर स‌े खिड़की पर लटका आया। ...देखता क्या है कि हरी मिर्च वहां झगड़ा स‌ुलह कराने पहुंच गयी है।


हरी मिर्च- अरे तुम दोनों बड़े गुणी हो। क्या तुम्हें मालूम है कि तुम दोनों अमीनो एसीड बनाने में बहुत मददगार हो। इससे हृदय,फेफड़ा,लीवर, किडनी स‌ब स्वस्थ रहता है। तुम दोनों ही डाइजेस्टिव जूस पैदा करते हो जिससे भोजन को पचाने में मदद मिलती है। इसलिए तुम दोनों को स‌लाद के रूप में खाया जाता है।मेरी दृष्टि में तो कोई भी कम-बेसी नहीं हो। अब लड़ाई बंद भी करो।


नेपथ्य स‌े- हरी मिर्ची की बात दोनों बड़े ध्यान स‌े स‌ुन रहे थे, क्योंकि वह बड़ी मीठी बतिया रही थी। बच्चे बे-वजह उससे डरते हैं। पर गाजर अब भी हार मानने वाला कहां था। लड़ाई को आगे बढ़ा ही दिया।


गाजर- मेरा हलवा कितना बढ़िया बनता है। क्या बच्चे, क्या बूढ़े स‌ब बड़े चाव स‌े खाते हैं। तू तो बड़ी ही कड़वी, तिक्त है। खाली कैंची की तरह मुंह चलाना जानती है।
मूली- (ने इसका प्रतिवाद किया) मेरा हलवा क्यों बनने जाय। मेरे तो पराठे बनते हैं, पराठे। लोग चटकारे ले-लेकर खाते हैं...और बल्ले-बल्ले करते हैं। स‌ुना नहीं कभी- मूली का पराठा।
बैगन- गाजर अभी अपनी अगली विशेषता बताता कि मैम आप आ गयीं। लड़ाई अपने आप बंद हो गयी। 
लौकी मैम- तुम दोनों अपनी-अपनी डायरी लाओ तो। (यह सुनते ही दोनों को स‌ांप स‌ूंघ गया।)
गाजर-मूली- (एक स‌ाथ) स‌ॉरी मैम। ....अब हम कभी नहीं लड़ेंगे।
मैम- (तुरंत पिघल गयीं) ठीक है। मुझे खुशी इस बात की है कि तुम दोनों को अपने-अपने गुणों के बारे में पता तो है। लेकिन तुमलोगों को दूसरे के गुणों को भी देखना चाहिए न कि स‌िर्फ कमियों को। 
     तुम दोनों में बहुत स‌ी स‌मानताएं भी हैं। ..तुम दोनों ही जमीन के भीतर पलते-बढ़ते हो। तुम दोनों के रूप-रंग भले ही अलग-अलग हैं पर तुम दोनों ही मानव स‌माज की स‌ेवा स‌मान भाव स‌े करते हो। उन्हें रेशेदार भोजन उपलब्ध कराते हो। तरह-तरह के विटामिनस् व मिनरलस् देते हो जो मानव शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक है। तुम दोनों को ही स‌लाद के रूप में खाया जाता है। तुम एक ही जननी की स‌ंतान हो। तुम दोनों भाई-बहन हो। 


....पर तुम्हारी इसी लड़ने की प्रवृत्ति के कारण लोग तुम्हें तुच्छ स‌मझते हैं। 


...सुना नहीं लोग कहतेहैं- गाजर-मूली कहीं का, तो कोई गाजर-मूली की तरह काटने की बात करता है। ...पर तुम तुच्छ नहीं हो। तुम ही क्यों, तुम स‌ब स‌ब्जी बहुत ही महत्वपूर्ण हो और स‌दियों स‌े मानव स‌माज की स‌ेवा करते आ रहे हो। इसलिए अपने आपको महत्वपूर्ण स‌मझो, पर स‌ाथ-साथ दूसरों को भी महत्व दो। शालीनता अपने आप में बहुत बड़ी शक्ति है। आज इतना ही। धन्यवाद।
(क्लास खत्म होने की घंटी लग गयी। लौकी मैम ने अपना बैग उठाया और मटकती हुई चली गयीं।)
                                         (पर्दा गिरता है। )
                                               (समाप्त)



Saturday 3 December 2011

दादा जी (बाल कविता)

                                     (चित्रकार- शिवा बसन) 


दादा जी हैं कड़क मिजाज
डर उनसे कुछ लगता है
हो जाय न गड़बड़ काम
भय यह मुझे स‌ताता है।


स‌ुबह उठाते, स‌ैर कराते
रबड़ी-मलाई खिलाते हैं
उलझाते हमें स‌वालों में
रामायण पूरी स‌ुनाते हैं।


गणित पूछो, खूब बताते
व्याकरण के तो पंडित हैं
विज्ञान उनकी नस-नस में
इतिहास अपना स‌ुनाते हैं।


ढेरों स‌ंस्मरण के मालिक वे
क्या वे नहीं बताते हैं
बांट अनुभव गदगद होते
फिर आराम फरमाते हैं।


दादा जी का कोट है कहता
बहुत पुराना स‌ाथी हूं
छड़ी घड़ी और छाता कहता
मैं तो उनका ब्रांड हूं।


चश्मा उनका बड़ा निराला
धोती की क्या शान है
दादाजी तो जीते-जागते
स‌भ्यता की पहचान हैं।


जब दादाजी की स‌ेवा करता
आशीष हमें खूब देते हैं
स‌ादगी उनकी, डांट-नसीहत
अब तो मेरी स‌ंस्कृति है।


दादाजी का कोट-वोट स‌ब
हमें बहुत रुलाता है
दादाजी नस-नस में अब
याद खूब वे आते हैं।
        ***

Wednesday 30 November 2011

नानी आयी..नानी आयी ( बाल कविता )

                                     
                             ( चित्रकार- शिवा बसन)




नानी आयी नानी आयी
मीठी मीठी लोरी लायी।


नानी तेल लगाएगी
स‌पने बड़े दिखाएगी
चांद पर पहुंचाएगी
फुसला-फुसला खिलाएगी
'पतला-दुबला क्यों है बाबू'
मां को डांट लगाएगी।


नानी आयी नानी आयी
स‌ोने की कटोरी लायी।


जब नानी पिटारी खोलेगी
ढेरों कहानी स‌ुनाएगी
कहानी में एक रानी होगी
उसकी प्रेम कहानी होगी
किसम-किसम की आंधी होगी
स‌ुखद अंत कहानी होगी।


नानी आयी नानी आयी
परियों की कहानी लायी।


जब नानी घर को जाएगी
मुझको बहुत रुलाएगी
चूमेगी ... पुचकारेगी
ढेरों मां को नसीहत देगी
'फिर आऊंगी, तुम भी आना'
आंसू बहाती जाएगी।


नानी आयी नानी आयी
ढेर स‌ारी खुशियां लायी।

Saturday 26 November 2011

बच्चों पर कुछ कविताएं

प्रकाशित,जनपथ, मई अंक 2014
बच्चों पर कुछ कविताएं

 (1)

बच्चे बना रहे हैं पहाड़
नदी
पेड़
हरे-भरे खेत
और एक चमचमाता हुआ स‌ूरज।

बच्चों की पेंटिंग्स् में बचे हैं गांव
बची है हरियाली
नीला आसमान
बच गया है-
एक बड़ा-सा मैदान।

(2)
बच्चे बना रहे हैं-
ऊंची-ऊंची इमारतें
जगह-जगह कूड़ों के ढेर
और ढेर स‌ारे लोग।

बच्चों की इस पेंटिग्स् में
कहीं नहीं है पेड़
नहीं है नदी
स‌ूरज भी नहीं
बस धुआं ही धुआं है
स‌िगनल लाल है
जाम में फंसा,छटपटाता 
एक शहर है।

(3)
वैन में, पुलकार में
ठुसम-ठास स्कूल जाते ये बच्चे
डेस्क के लिए लड़ते ये बच्चे
इस खबर स‌े बेखबर हैं ये बच्चे
कि शुरु कर चुके हैं
अपनी-अपनी जगह बनाने की
एक भयानक लड़ाई।

(4)
स्कूल के ये बच्चे
खेल रहे हैं कक्षा में-
हैंड-क्रिकेट
टीचर के प्रवेश करते ही
थम जाता है अचानक
उनका यह खेल।

फिर चुपके स‌े न जाने कब
उतर जाते हैं वे
खेल के काल्पनिक मैदान में
और झटकने लगते हैं हाथ
ऊंगलियों के इशारों पर ही
बनने लगते हैं रन।


बिन मैदान के
बिन बल्ला घुमाए
बिन दौड़े ही
बन जाते हैं ढेर स‌ारे रन
और हो जाते हैं-
क्लीन बोल्ड।


(5)
बाग-बगीचों स‌े होकर
खेलते-कूदते ये बच्चे
गप्पे हांकते
स्कूल स‌े लौटते ये बच्चे
रंग-बिरंगे पहरावे में
पुस्तकों के बोझ स‌े मुक्त
उन्मुक्त, स्वच्छंद ये बच्चे
नम्बर लाने की होड़ में शामिल नहीं हैं
विकास बनाम पिछड़े
 गांव के बच्चे हैं ये।


(६)
कम्प्यूटर पर ये बच्चे
खेल रहे हैं युद्ध
थामें हैं हाथों में- एके-४७, ग्रिनेड
रच रहे हैं कोई चक्र-व्यूह
और बढ़ रहे हैं आतंक के स‌ाए में, धीरे-धीरे
मार रहे हैं आतंकवादी
चारों ओर खून ही खून है
स‌न्नाटा ही स‌न्नाटा है
बच्चे क्यों खेल रहे हैं युद्ध?
बच्चे क्यों थाम रहे हैं बंदूक?
और कहीं आपने पढ़ा, स‌ुना या देखा था?
पेन- फाइटिंग?
इसे कविता की तरह नहीं-
एक भयानक खबर की तरह पढ़ा जाना चाहिए।

             -०-

Sunday 30 October 2011

Sunday 4 September 2011

बिग-बॉस के घर में लालूजी की भइंसिया (व्यंग्य)

घर आया तो देखा कि लोग बिग-बॉस पर जमे हुए हैं। लाख मना करने पर भी घरवाले नहीं मानते। स‌ो मजबूरन मुझे भी देखना पड़ा। भैंस देखा तो मैं चौंका। पूछा- इ लालू जी की भंइसिया कहां स‌े आ गयी? स‌ब हंसने लगे। दरअसल जहां भी गाय-भैंस देखता हूं तो न जाने क्यों मुझे लगता है कि इसके मालिक लालूजी ही हैं। मीडिया में लालूजी ने भैंसो के स‌ाथ अपने आपको इतना अधिक प्रोजेक्ट किया है कि वे स‌भी उन्हीं के नाम पेटेंट हो गई हैं। स‌ो जहां भैंस होंगी वहां मुझे लालूजी बरबस याद आ ही जाते हैं।


      तो उस दिन देखा कि बिग-बॉस के घर में भैंस बंधी है। गायक मनोज तिवारी मुरैठा बांधे गोबर उठा रहे हैं और कोमल परियां (पर करतूत की गुण्डी) भैंस धो रही हैं। अपने खली महाशय एक परी स‌े इसी में उलझे हुए हैं कि यह गाय है या भैंस। और स‌ारा देश एक मंच पर पहलवान, कलाकार, भैंस, लफंगा-लफंगी स‌बको मजे स‌े देख रहा है। अजीब नौटंकी है यह।


    स‌ोचता हूं ये बिग-बॉस वाले भी क्या चीज हैं। एक स‌े एक नमूनों को एसेम्बल करते  रहते हैं। और इससे जो मसाला बनता है, खूब बिकता है। अब अपने मनोज तिवारी जी जब महुआ चैनल पर स‌ुर-संग्राम का स‌ंचालन करते हैं तो कितना मजा आता है। भोजपुरिया स‌माज ही नहीं देश को भी पहली बार यह एहसास होता है कि भोजपुरी में भी इतनी अच्छी गायकी की जा स‌कती है। वरना बिहार-यूपी जाओ तो वहां के गीतों को स‌ुनकर तो यही लगता है कि यहां आज भी रीतिकाल चल रहा है। भले ही हिन्दी स‌ाहित्य में रीतिकाल का दौर खत्म हो गया हो। तो अपनी आजादी बेचकर मनोज तिवारी को गुलामी करने बिग-बॉस के घर में क्यों जाना पड़ गया ? पहलवान खली स‌ाहब क्यों भूखों मरने चले आए इस अजीब जेल-खाने में? इसके केंद्र में यदि महज पैसा ही है तो यह भी स‌माज का एक असली खौफनाक चेहरा है जहां आदमी आज अपनी आजादी को खुशी-खुशी बेच रहा है। गुलामी, उल-जलूल हरकत करने स‌े बाज नहीं आ रहा। बल्कि वह तो मजा ले रहा है और देश चटकारे लेकर देख रहा है।
                   यह गजब का देश है। जो बेचोगे, स‌ब बिकेगा। देखा नहीं बिग-बॉस के घर में नकली शादी क्यों करायी गयी? जब शादी होगी तभी तो स‌ुहाग रात मनेगी? फिर क्या था कैमरे के स‌ामने स‌ुहाग रात मनाई गई। बिना लाग-लपेट के देश को लाइव दिखा दिया गया। देश का क्या है, जो दिखाओगे स‌ब देखेगा। वह तो कब स‌े टकटकी लगाए हुए बैठा था। जैसे बिगाड़ोगे, देश बिगड़ने के लिए तैयार है। गनीमत है लालू जी की भंइसिया (भैंस) ने नहीं देखा।


स‌ोचता हूं बिग-बॉस वालों को इतने बढ़िया-बढ़िया आइडिया कहां स‌े आते हैं? जहां स‌े भी आते हों, पर इतना तो तय है कि ये मैनेजमेंट-गुरु हैं। मार्केटिंग करना खूब जानते हैं। एम.बी .ए में दाखिला लेने वाले चाहें तो बिग-बॉस में ही एडमिशन ले स‌कते हैं। इन्होंने रास्ता दिखा दिया है। देश में कूड़े-कचरे, नंगई की कमी थोड़े ही है? यहां भी एक बड़ा मार्केट छुपा हुआ है। वैसे लालू जी को और उनकी भंइसिया को मीडिया वालों ने भी कम नहीं बेचा है।


जब लालू जी की भंइसिया बिग-बॉस के घर पहुंच ही गई है तो बिग-बॉस वाले चाहें तो लालू जी को भी पटना स‌े उठा ला स‌कते हैं। आजकल वे बड़े फुर्सत में हैं। अबकी बिहार विधान-सभा चुनाव में (2010) उनकी पार्टी व कांग्रेसियों का स‌ूपड़ा ही स‌ाफ हो गया है। बिहारी अब लालू जी का लिट्टी-चोखा खाने के मूड में नहीं हैं। पंद्रह स‌ाल स‌े लालू जी ने बिहार को हेमा मालिनी के गाल जैस‌ी चिकनी स‌ड़क  देने का स‌पना खूब दिखाया। पटना स‌े चिकनी स‌ड़क और रेल स‌ब उनकी स‌सुराल तक जाकर स‌िमट जाती थी। अब पति-पत्नी के परिवार-वाद की राजनीति पर बिहारी भाई लोग कब तक ताली पीटते रहते? स‌ो बिहार ने अबकी उनके लालटेन को पूरी तरह स‌े बुझा दिया है। अब उन्हें बिजली चाहिए, विकास चाहिए। खाली मसखरापन स‌े कहीं राज चलता है?


पर लालू जी की भंइसिया तो बड़ी स‌ंवेदनशील निकली। अपना नया फ्यूचर तलाशने बिग-बॉस के घर पहुंच गई। यह स‌ब राजनीति का ही असर है, इसलिए लालू जी स‌े एक कदम आगे चल रही है। अब यह लालू जी पर डिपेंड करता है कि वे अपनी भंइसिया के स‌ाथ जाएंगे या नहीं? फिलहाल वे नीतिश जी के जीत व अन्ना के लंबे उपवास के रहस्य का पता लगा रहे हैं। जबकि बिहारियों ने उनको उन्हीं के अंदाज में अबकी डांट दिया है- भाक बुड़बक! इ ललटेनवा (लालटेन) बिहार में और केतना दिन तक चली?
                                                                ***



Saturday 13 August 2011

गुड़ की कहानी (बाल-रचना)

प्रकाशित, बाल भरती ( अप्रैल अंक 2011, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली)















Thursday 28 July 2011

मैं हूं टमाटर लाल (आत्म कथा)


प्रकाशित, बाल प्रभा 2012,शाहजहांपुर
ह तो हो ही नहीं स‌कता कि आपने मुझे देखा ही न हो। जी, खूब देखा है आपने। स‌ब्जी के थैले में, किचेन में, फ्रीज में तो आप मुझे बचपन स‌े देखते आ रहे हैं। स‌लाद में, स‌ॉस के रूप में न जाने कितनी बार आपने मुझे खाया होगा। मुझे जिस किसी स‌ब्जी में डाल दो, मैं उसका स्वाद बढ़ा देता हूं। दाल में, मीट में, मछली में, डोसा में चाहे जहां भी मुझे डाल दो, मैं उसे जायकेदार बना देता हूं। पाव भाजी हो या भेलपुरी मेरे बगैर तो बन ही नहीं स‌कता। चाहो तो मुझे पकाकर आलू का भरता (चोखा) में डाल दो, या मेरा कचूमर निकाल कर मेरी चटनी ही क्यों न बना लो, हर हाल में मैं बड़ा स्वाद देता हूं। शीत ऋतु में मेरा गरमा-गरम स‌ूप पीकर तो देखो, क्या खूब ताकत देता हूं। स‌मोसे में, चावमीन में जो लाल-लाल स‌ॉस आप खाते हैं, वह मैं ही तो हूं।

            मेरी मांग को देखते हुए आजकल मेरी खेती स‌ालों भर होने लगी है। अब मैं केवल शीत ऋतु में उपजने वाला स‌ब्जी नहीं रह गया हूं। ग्रीन-हाउस में मुझे स‌ालों भर उगाया जा रहा है, तो आसानी स‌े यह स‌मझा जा स‌कता है कि मेरी अहमीयत कितनी बढ़ गयी है। मैं कितने काम की चीज हूं। पर मुझे दुख इस बात का है कि कुछ बच्चे मुझे पसंद नहीं करते। स‌ुना है कि मुझे चाव स‌े नहीं खाते। मेरे खट्टेपन को लेकर उन्हें शिकायत रहती है। तो मैं उन्हें अपने कुछ गुणों को बताने पर मजबूर हूं। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा। पर क्या करूं? बच्चे मुझे न खाकर अपना कितना अहित कर रहे हैं, कैसे बताऊं?
        आप स‌ोच रहे होंगे कि मैं किसी पेड़ पर फलता हूं, आम-सेव की तरह। तो आपको गलतफहमी है। मैं तो छोटे-छोटे बेलनुमा पौधों में ही गुच्छे के गुच्छे फल जाता हूं। मेरे भार के कारण मेरी लताएं जमीन पर पसर जाती हैं। किसान भाई लोग मुझे बाजार ढ़ोते-ढ़ोते थक जाते हैं। आप मेरे खेत स‌े यदि गुजरेंगे तो आपके हाथ-पांव स‌ब टमाटरमय हो जाएंगे। मतलब मैं अपनी स‌ुगंधि स‌े उन्हें भर देता हूं। मैं बहुत प्रभावी हूं। आप चाहे तो मुझे गमले में भी उगा स‌कते हैं। दो महीने में ही फलने लगूंगा।

        खेतों में जैसे ही मैं पकने लगता हूं, गांव के बच्चे मुझे तोड़कर बड़े चाव स‌े खा जाते हैं। जैसे कोई स‌ेव खा रहा हो। मैं स‌ेव स‌े कम थोड़े ही हूं। स‌ेव में विटामिन ए मिलता है तो मुझमें भी  होता है। अब आपको यह पता होना ही चाहिए कि विटामिन ए की कमी स‌े कौन-कौन स‌े रोग हो स‌कते हैं। विटामिन ए की कमी स‌े त्वचा और आंखों में खराबी आने लगती है। आंखों की दृष्टि कमजोर होने लगती है जिससे रात को कम दिखाई देता है। तो मैं अंधापन को दूर करता हूं। आपकी हड्डी मजबूत करता हूं। मुझमें विटामिन स‌ी भी पाया जाता है। इसकी कमी स‌े आपका वजन घटने लगता है, मसूड़े ढ़ीले पड़ने लगते हैं। तो मैं आपका वजन स‌ही रखने में मददगार हूं। विटामिन बी और विटामिन के भी मैं रखता हूं। जब आप खेलते-कूदते हैं, और कहीं कट-फट जाता है तो रक्त जमाने में मैं मदद करता हूं। आपके घाव को तुरंत ठीक कर आपको पुनः खेलने लायक बना देता हूं। मेरे भीतर पानी की मात्रा बहुत अधिक होती है, स‌ो आपके शरीर में पानी की कमी नहीं होने देता। अगर आपको मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा तो किसी डॉक्टर अंकल स‌े पूछ स‌कते हैं। 

       यह तो हुई विटामिन्स की बात। अब उन मिनरल्स के नाम गिनाता हूं जो मुझमें पाए जाते हैं। पोटेशियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस, क्लोराइड आदि को जमीन स‌े खींचकर मैं खास कर आपके लिए लाता हूं। ये स‌भी विभिन्न तरह स‌े आपके शरीर के विकास में स‌हयोगी हैं। मैं थायरॉक्सीन एसीड बनाने में स‌हायक हूं जिससे आप जो भी भोजन करते हैं उसे पचाने में मदद मिलती है। आपने देखा होगा कि स‌लाद के रूप में विशेष स‌जावट के स‌ाथ मैं इसलिए खाया जाता हूं ताकि आपका भोजन आसानी स‌े पच जाए। इसके अलावा थायराइड-ग्लैंड, पिट्यूटरी ग्लैंड, एड्रनेल ग्लैंड के स‌ाथ-साथ मैं मेटाबोलिज्म को भी ठीक रखता हूं। स‌च मुझे भी अपने इतने स‌ारे गुणों के विषय में जानकारी नहीं थी। वह तो मेरे एक मित्र टमाटर लाल ने यह स‌ब बातें बताई थी जो डॉक्टर की बगिया में ही पैदा हुआ था, वहीं पला-पढ़ा था। इसी तरह एक दूसरे मित्र ने एक और रोचक कथा स‌ुनाई थी।

    एक स‌िन्हा जी थे। एक बार वे नर्सरी स‌े मेरे कुछ नन्हे-नन्हे पौधे लेकर आए और अपने क्वाटर के बागान में लगा दिया। मैं जल्दी ही लग गया और लगा लहलहाने। वे एक दो दिन बीच करके मुझे पानी स‌े खूब नहलाते, मेरे आस-पास की मिट्टी को कोड़ कर नरम बनाते। घास आदि उखाड़ फेंकते। तन-मन स‌े वे मेरी स‌ेवा में जुटे हुए थे। मैं भी खूब हरा-भरा होकर उनकी बगिया की शान बढ़ाने लगा था। अब मुझमें फूल भी आने लगे थे। तभी एक रात क्वाटर की गलियों में विचरण करने वाली एक लावारिस गाय ने बाड़ को फांद कर मुझ पर हमला बोला। उसने खूब दावत उड़ाई। बड़ी बेरहमी स‌े मुझे चर लिया गया। जिस तरह स‌े फांद कर उस गाय ने मुझ पर हमला बोला था, वह गाय कम घोड़ी अधिक लगती थी। स‌ुबह जब स‌िन्हा जी मुझे निहारने पहुंचे तो उन्हें घोर निराशा हुई। उनके स‌पने पर पानी फिर चुका था। उनकी आंखों में आंसू को देख मुझे भी दुख हुआ था। वे अंग्रेजी के शिक्षक थे, और एक शिक्षक को रोते हुए मैंने पहली बार देखा था। वह भी मामूली पौधों के लिए। मेरे प्रति उन्होंने जो प्रेम दिखाया था, बस मैंने भी ठान लिया। मैं खूब पनपा। जल्दी ही मैं पहले स‌े ज्यादा हरा-भरा हो गया। इतना फला कि स‌िन्हा जी खाते-खाते थक गए। फिर उन्होंने मुझे अपने मित्रों के यहां भिजवाया। आस-पड़ोस में बंटवाया। वे स्वयं पड़ोसियों के यहां मुझे ले जाते। गेट पर स‌े ही आवाज लगाते- मुखर्जी बाबू..ओ मुखर्जी बाबू...लीजिए..ये टमाटर खाइये, मेरे बागान के हैं। जब मुखर्जी बाबू कहते- एतो लाल-लाल, बड़ो-बड़ो...तब स‌िन्हा जी गर्व स‌े झूम उठते। लोग उन्हें मुस्कुराते हुए धन्यवाद देते। यह देखकर मुझे अपार खुशी होती। स‌िन्हा जी ने टमाटर बांट-बांट कर खूब नाम कमाया। मैंने भी उनसे यह स‌ीखा कि परोपकार स‌े बढ़कर इस दुनिया में कोई बड़ा धर्म नहीं है। पर-सेवा में गजब का आनंद है।

        बड़ी-बड़ी कंपनियां आज मुझे बेचकर माला-माल हो रही हैं। वहीं बेचारा किसान जो मुझे उगाता है, कंगाल बना हुआ है। इन कंपनियों की वजह स‌े ही आजकल मेरे भाव कुछ ज्यादा ही चढ़े हुए हैं। मेरे चढ़े हुए भाव पर जब स‌ंसद में हंगामा मचता है, तब मेरे महत्व को आसानी स‌े स‌मझा जा स‌कता है। मुझे लेकर जो ओछी राजनीति होती है वह मुझे पसंद नहीं। अरे, मुझे उगाने के लिए किसानों को प्रेरित करो, उन्हें स‌ही मूल्य दिलाओ, ताकि मेरे भाव स‌दा नीचे रहे। मैं म्यूजिम की चीज नहीं बनना चाहता। गृहणियों के किचेन में, आपकी थाली में ही मेरी शोभा बढ़ती है। इतना स‌ुनने के बाद भी क्या आप मुझे खाना पसंद नहीं करेंगे?  
  
    मुझे तो खुशी तब होगी जब आप मुझे चाव स‌े खाने लगेंगे। स‌लाद के रूप में खाकर जब मुझे अपने शरीर में पहुंचा देंगे, तभी तो मैं अपना काम तन-मन-धन स‌े कर स‌कूंगा। मैं स‌चमुच में लाल हूं। मुझे खाकर आप भी लाल हो जाएं, फिर इस देश के लाल बने। यही तो मेरी तमन्ना है। ...धीरज स‌े मेरी लंबी कथा स‌ुनने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।      

Friday 8 July 2011

सांप्रदायिकता (कविता)

स‌ब जानते हैं-
स‌ांप्रदायिकता!
धर्म,भाषा,रंग,देश...
न जाने कितनी ही बिंदुओं पर
तुम कटार उठाओगे
और दौड़ने लगोगे एकाएक
हांफते हुए-
कस्बा-कस्बा
शहर-शहर
गांव-गांव।


और यह भी
स‌ब जानते हैं-
कि अपने चरित्रानुसार
रोती-बिलखती बुत बनी आत्माओं
खंडहरों के बीच छुप जाओगे
शायद तुम्हारे भीतर का आदमी
डरा होगा थोड़ी देर के लिए।


तब-
उन्हीं खंडहरों
काठ बनी आत्माओं के बीच स‌े
निकल आएगा धीरे-धीरे
एक कस्बा
एक शहर
एक गांव....एक गांव...।

Thursday 2 June 2011

सवाल जो दब गया (कविता)

आतंकी हमला हो रहा था जब मुबंई पर
गायब रहा मुबंई का हिटलर
गायब रही उसकी सेना
उसके बछड़े, उसके धरती पुत्र

जबकि दहलता रहा मुबंई
बरसती रही गोलियां
छलनी होती रही मानवता

पुलिस और सेना के साथ-साथ तब
स‌ड़कों पर बेखौफ थी जनता
मीडिया और फायर वालों ने भी
 ले रखा था मोर्चा
अपनी-अपनी तरह से स‌ब
बचा रहे थे मुबंई

पर जिनके-जिनके बाप की थी मुबंई
दुबके रहे आलीशान महलों में
कड़ी  सुरक्षा  के बीच
महफूज रहे

शहीद हो गया बचाने की खातिर मुबंई को
महाराष्ट्र......
कर्नाटक, तमिलनाडु
दिल्ली, यूपी, बिहार
या कहें कि पूरा का पूरा देश

पर पूछा नहीं कभी दिल्ली ने
कि उस वक्त कहां था वह?
कहां थी उसकी सेना?
आतंकी हमला हो रहा था
जब मुबंई पर?
     ***


Wednesday 1 June 2011

मां का दूसरा ब्याह




प्रकाशित, संडे मेल (23-29 जनवरी, 1994)
एक स‌व्याख्या कविता

कविता बदलाव को तो पकड़ती ही है, साथ-साथ वह पूर्वदर्शी भी होती है। कल जो हो स‌कता है, कविता उसे भी प्रकट करने की क्षमता  रखती है। 
     मैंने एक कल्पना की है, पर वह कल्पना हवा में टंगी हुई नहीं है, बल्कि यथार्थ की भूमि पर ही खड़ी है। कल्पना है- निरंतर मानव-शक्ति के दबाव से प्रकृति कहीं-कहीं चरमराने लगी है, हारने लगी है ( पर विडंबना यह है कि मनुष्य इसे महसूसता तो है पर प्रकृति पर पड़ते दबाव को रोक नहीं पा रहा ) अर्थात् प्रकृति का अपना स्वाभाविकपन खत्म हो रहा है। मनुष्य ने हवा को, पानी को एक रंग दिया है। ओजोन छत को नष्ट किया है। मानव की इसी प्रवृत्ति  को केंद्रित कर मेरी यह कल्पना है कि एक दिन नियमानुसार पृथ्वी-वासी रात को सोते हैं। चिड़िया खूब चहचहाती है, मुर्गे भी कस-कस कर बांग देते हैं पर भोर नहीं होती। सूरज का कहीं भी अता-पता नहीं है। पूरी पृथ्वी अंधकार में डूब जाती है। पूरी पृथ्वी के लोग इस दैवी-प्रकोप के भय से एक हो जाते हैं। स‌भी देशों की सीमा-रेखा मिट जाती हैं। जाति-पाति के भेद-भाव भी नहीं रह जाते। पूरी दुनिया में युद्ध थम-सा जाता है। स‌भी वैज्ञानिक अपने पिता (सूरज) का पता लगाने में बेचैन हो जाते हैं। पर अंततः पिता के मरने की ही खबर आती है। मां विधवा हो जाती है। इस स्थिति में भी मां के सुपुत्रों का अपनी प्रगति पर अटूट विश्वास है, गरूर नष्ट नहीं होता। वे यह विचारने को कतई तैयार ही नहीं हैं कि यह स‌ब अति प्रगति का ही परिणाम है। फलस्वरूप वे दूसरा पर नकली अनेक/ एक सूरज बनाने की दिशा में प्रयत्नरत हो जाते हैं। ध्वंस होता जाएगा पर मनुष्य रुकेगा नहीं। कब तक?
      वस्तुततः इस कविता में मनुष्य की इसी प्रवृत्ति को दिखाया गया है, साथ ही जागने का आह्वान भी है।
  
उस दिन-
नहीं थी कोई
सीमा-रेखा
नहीं थी कहीं
कोई जाति
मिटे थे स‌ब भेद
पूर्वजों के।

युद्ध!
वह तो कब का 
थम-सा गया था
पर-
प्रकृति का क्रम 
गड़बड़ा-सा गया था

उस दिन चिड़ियां
खूब चहचहायी थी
मुर्गे ने भी
कस कस के 
बांग दी थी
पर स‌ब व्यर्थ सिद्ध हुआ था
अपना पिता पश्चिम से
नहीं लौटा था।

कुछ देर बाद
मां के विधवा होने की
खबर आयी  थी
कि उसके सुपुत्रों ने
अपनी प्रगति के गरूर में
मां का दूसरा
नकली ब्याह 
रचाने का संकल्प
लिया ही था-
कि मैं जाग उठा
उस भयावह 'स‌पने से'
     ***









Saturday 28 May 2011

बीसवीं स‌दी की स‌बसे बड़ी दुर्घटना

(प्रकाशित, वागर्थ अंक-20, मई 1996)

पृथ्वी के कुछ मानव पृथ्वी पर
खींचते हैं सीमा रेखाएं
बांट देते हैं लोगों को
और करते हैं उन पर शासन
बताते हैं-
जरूरी है तुम्हारी रक्षा के लिए
परमाणु परीक्षण
सैनिक खर्च पर बढ़ोत्तरी
इस तरह दूसरे देशों को 
डराने धमकाने का सिलसिला जारी रहता है।

जबकि
पृथ्वी के बहुत देशों के
बहुत-बहुत मानव
तोड़ते हैं सीमा रेखाएं
पहुंचते हैं पृथ्वी के किसी कोने में
बनाते हैं अपनी कर्म-भूमि
स‌मर्पित कर देते हैं जीवन
और प्रमाणित कर देते हैं-
ब्रह्माण्ड में पृथ्वी एक घर है।

फ्रांस में जब परमाणु परीक्षण होता है
तब रिएक्टर स्केल पर न केवल फ्रांस कांपता है 
न सिर्फ चीन
और न ही दुनिया के वे पचास देश
जो परमाणु शक्ति पर इतराते हैं
बल्कि पूरी पृथ्वी कांपती है।

पृथ्वी पर कुछ लोगों के लिए 
पृथ्वी एक घर कभी नहीं रहा
और साहेबान तमाशा देखिए
कि जिनके पास परमाणु शक्ति है
वे ही नाटक रच रहे हैं
पृथ्वी को बचाने का
ये शांति-दूत हैं, विश्व-शांति के पहरेदार!

पृथ्वी पर बहुत-बहुत 
कवि हैं, कलाकार हैं
बुद्धिजीवियों की बाढ़ है
सीमा-रेखा खींचने वालों की चपेट में 
रोते-बिलखते सीधे-सादे
रिफ्यूजियों की पूरी पलटन है
जो पृथ्वी को एक घर स‌मझते हैं
युद्ध में मारे गए लोगों के प्रति आंसू बहाते हैं
और चाहते हैं कि
विज्ञान के इस युग में - जबकि
जबकि स्विच ऑन करते ही
एक देश दूसरे से
हाथ मिलाने की स्थिति में हो
बांधा जाए पूरी पृथ्वी को एक परिवार में
और तोड़ी जाए सीमाएं
स‌मझा जाय पृथ्वी को ब्रह्माण्ड का एक छोटा-सा घर।

परंतु बीसवीं स‌दी के अंतिम इतिहास में
आधुनिकता केवल हल्ला ही हल्ला है
पृथ्वी के कुछ मानवों के लिए
जिनकी खोपड़ी में बंद है
विध्वंस के कई-कई रहस्य
उनके आगे पूरी मानवता असहाय है
यह इस स‌दी की 
स‌बसे बड़ी दुर्घटना है।

          ***

विकास बनाम परंपरा

गरजा था यहीं कहीं पर
पूंजीवाद और राजनीति का बुलडोजर
हरे-भरे खेत हो गए जिससे लहूलुहान
पुलिस ने गिराई कई लाशें
फिर आत्म-हत्या का दौर तो 
कभी थमा ही नहीं...

प्लांट का क्या था?
कहीं भी आबाद हो स‌कता था बंजर जमीन पर
कंक्रीट के जंगल बसाने से पहले
सुन ली जाती किसानों की भी
महसूस लिया जाता
मिट्टी से कटने का
परंपरा से बेदखल होने का दर्द....

नींव डाली गयी जहां विकास की
दब गए वहां हजारों किसान
नष्ट हो गयी स‌दियों पुरानी एक परंपरा
उजड़ गयी एक ग्राम-संस्कृति
मिट्टी में मिल गयी
एक स‌भ्यता.....
     ***