घर आया तो देखा कि लोग बिग-बॉस पर जमे हुए हैं। लाख मना करने पर भी घरवाले नहीं मानते। सो मजबूरन मुझे भी देखना पड़ा। भैंस देखा तो मैं चौंका। पूछा- इ लालू जी की भंइसिया कहां से आ गयी? सब हंसने लगे। दरअसल जहां भी गाय-भैंस देखता हूं तो न जाने क्यों मुझे लगता है कि इसके मालिक लालूजी ही हैं। मीडिया में लालूजी ने भैंसो के साथ अपने आपको इतना अधिक प्रोजेक्ट किया है कि वे सभी उन्हीं के नाम पेटेंट हो गई हैं। सो जहां भैंस होंगी वहां मुझे लालूजी बरबस याद आ ही जाते हैं।
तो उस दिन देखा कि बिग-बॉस के घर में भैंस बंधी है। गायक मनोज तिवारी मुरैठा बांधे गोबर उठा रहे हैं और कोमल परियां (पर करतूत की गुण्डी) भैंस धो रही हैं। अपने खली महाशय एक परी से इसी में उलझे हुए हैं कि यह गाय है या भैंस। और सारा देश एक मंच पर पहलवान, कलाकार, भैंस, लफंगा-लफंगी सबको मजे से देख रहा है। अजीब नौटंकी है यह।
सोचता हूं ये बिग-बॉस वाले भी क्या चीज हैं। एक से एक नमूनों को एसेम्बल करते रहते हैं। और इससे जो मसाला बनता है, खूब बिकता है। अब अपने मनोज तिवारी जी जब महुआ चैनल पर सुर-संग्राम का संचालन करते हैं तो कितना मजा आता है। भोजपुरिया समाज ही नहीं देश को भी पहली बार यह एहसास होता है कि भोजपुरी में भी इतनी अच्छी गायकी की जा सकती है। वरना बिहार-यूपी जाओ तो वहां के गीतों को सुनकर तो यही लगता है कि यहां आज भी रीतिकाल चल रहा है। भले ही हिन्दी साहित्य में रीतिकाल का दौर खत्म हो गया हो। तो अपनी आजादी बेचकर मनोज तिवारी को गुलामी करने बिग-बॉस के घर में क्यों जाना पड़ गया ? पहलवान खली साहब क्यों भूखों मरने चले आए इस अजीब जेल-खाने में? इसके केंद्र में यदि महज पैसा ही है तो यह भी समाज का एक असली खौफनाक चेहरा है जहां आदमी आज अपनी आजादी को खुशी-खुशी बेच रहा है। गुलामी, उल-जलूल हरकत करने से बाज नहीं आ रहा। बल्कि वह तो मजा ले रहा है और देश चटकारे लेकर देख रहा है।
यह गजब का देश है। जो बेचोगे, सब बिकेगा। देखा नहीं बिग-बॉस के घर में नकली शादी क्यों करायी गयी? जब शादी होगी तभी तो सुहाग रात मनेगी? फिर क्या था कैमरे के सामने सुहाग रात मनाई गई। बिना लाग-लपेट के देश को लाइव दिखा दिया गया। देश का क्या है, जो दिखाओगे सब देखेगा। वह तो कब से टकटकी लगाए हुए बैठा था। जैसे बिगाड़ोगे, देश बिगड़ने के लिए तैयार है। गनीमत है लालू जी की भंइसिया (भैंस) ने नहीं देखा।
सोचता हूं बिग-बॉस वालों को इतने बढ़िया-बढ़िया आइडिया कहां से आते हैं? जहां से भी आते हों, पर इतना तो तय है कि ये मैनेजमेंट-गुरु हैं। मार्केटिंग करना खूब जानते हैं। एम.बी .ए में दाखिला लेने वाले चाहें तो बिग-बॉस में ही एडमिशन ले सकते हैं। इन्होंने रास्ता दिखा दिया है। देश में कूड़े-कचरे, नंगई की कमी थोड़े ही है? यहां भी एक बड़ा मार्केट छुपा हुआ है। वैसे लालू जी को और उनकी भंइसिया को मीडिया वालों ने भी कम नहीं बेचा है।
जब लालू जी की भंइसिया बिग-बॉस के घर पहुंच ही गई है तो बिग-बॉस वाले चाहें तो लालू जी को भी पटना से उठा ला सकते हैं। आजकल वे बड़े फुर्सत में हैं। अबकी बिहार विधान-सभा चुनाव में (2010) उनकी पार्टी व कांग्रेसियों का सूपड़ा ही साफ हो गया है। बिहारी अब लालू जी का लिट्टी-चोखा खाने के मूड में नहीं हैं। पंद्रह साल से लालू जी ने बिहार को हेमा मालिनी के गाल जैसी चिकनी सड़क देने का सपना खूब दिखाया। पटना से चिकनी सड़क और रेल सब उनकी ससुराल तक जाकर सिमट जाती थी। अब पति-पत्नी के परिवार-वाद की राजनीति पर बिहारी भाई लोग कब तक ताली पीटते रहते? सो बिहार ने अबकी उनके लालटेन को पूरी तरह से बुझा दिया है। अब उन्हें बिजली चाहिए, विकास चाहिए। खाली मसखरापन से कहीं राज चलता है?
पर लालू जी की भंइसिया तो बड़ी संवेदनशील निकली। अपना नया फ्यूचर तलाशने बिग-बॉस के घर पहुंच गई। यह सब राजनीति का ही असर है, इसलिए लालू जी से एक कदम आगे चल रही है। अब यह लालू जी पर डिपेंड करता है कि वे अपनी भंइसिया के साथ जाएंगे या नहीं? फिलहाल वे नीतिश जी के जीत व अन्ना के लंबे उपवास के रहस्य का पता लगा रहे हैं। जबकि बिहारियों ने उनको उन्हीं के अंदाज में अबकी डांट दिया है- भाक बुड़बक! इ ललटेनवा (लालटेन) बिहार में और केतना दिन तक चली?
***
तो उस दिन देखा कि बिग-बॉस के घर में भैंस बंधी है। गायक मनोज तिवारी मुरैठा बांधे गोबर उठा रहे हैं और कोमल परियां (पर करतूत की गुण्डी) भैंस धो रही हैं। अपने खली महाशय एक परी से इसी में उलझे हुए हैं कि यह गाय है या भैंस। और सारा देश एक मंच पर पहलवान, कलाकार, भैंस, लफंगा-लफंगी सबको मजे से देख रहा है। अजीब नौटंकी है यह।
सोचता हूं ये बिग-बॉस वाले भी क्या चीज हैं। एक से एक नमूनों को एसेम्बल करते रहते हैं। और इससे जो मसाला बनता है, खूब बिकता है। अब अपने मनोज तिवारी जी जब महुआ चैनल पर सुर-संग्राम का संचालन करते हैं तो कितना मजा आता है। भोजपुरिया समाज ही नहीं देश को भी पहली बार यह एहसास होता है कि भोजपुरी में भी इतनी अच्छी गायकी की जा सकती है। वरना बिहार-यूपी जाओ तो वहां के गीतों को सुनकर तो यही लगता है कि यहां आज भी रीतिकाल चल रहा है। भले ही हिन्दी साहित्य में रीतिकाल का दौर खत्म हो गया हो। तो अपनी आजादी बेचकर मनोज तिवारी को गुलामी करने बिग-बॉस के घर में क्यों जाना पड़ गया ? पहलवान खली साहब क्यों भूखों मरने चले आए इस अजीब जेल-खाने में? इसके केंद्र में यदि महज पैसा ही है तो यह भी समाज का एक असली खौफनाक चेहरा है जहां आदमी आज अपनी आजादी को खुशी-खुशी बेच रहा है। गुलामी, उल-जलूल हरकत करने से बाज नहीं आ रहा। बल्कि वह तो मजा ले रहा है और देश चटकारे लेकर देख रहा है।
यह गजब का देश है। जो बेचोगे, सब बिकेगा। देखा नहीं बिग-बॉस के घर में नकली शादी क्यों करायी गयी? जब शादी होगी तभी तो सुहाग रात मनेगी? फिर क्या था कैमरे के सामने सुहाग रात मनाई गई। बिना लाग-लपेट के देश को लाइव दिखा दिया गया। देश का क्या है, जो दिखाओगे सब देखेगा। वह तो कब से टकटकी लगाए हुए बैठा था। जैसे बिगाड़ोगे, देश बिगड़ने के लिए तैयार है। गनीमत है लालू जी की भंइसिया (भैंस) ने नहीं देखा।
सोचता हूं बिग-बॉस वालों को इतने बढ़िया-बढ़िया आइडिया कहां से आते हैं? जहां से भी आते हों, पर इतना तो तय है कि ये मैनेजमेंट-गुरु हैं। मार्केटिंग करना खूब जानते हैं। एम.बी .ए में दाखिला लेने वाले चाहें तो बिग-बॉस में ही एडमिशन ले सकते हैं। इन्होंने रास्ता दिखा दिया है। देश में कूड़े-कचरे, नंगई की कमी थोड़े ही है? यहां भी एक बड़ा मार्केट छुपा हुआ है। वैसे लालू जी को और उनकी भंइसिया को मीडिया वालों ने भी कम नहीं बेचा है।
जब लालू जी की भंइसिया बिग-बॉस के घर पहुंच ही गई है तो बिग-बॉस वाले चाहें तो लालू जी को भी पटना से उठा ला सकते हैं। आजकल वे बड़े फुर्सत में हैं। अबकी बिहार विधान-सभा चुनाव में (2010) उनकी पार्टी व कांग्रेसियों का सूपड़ा ही साफ हो गया है। बिहारी अब लालू जी का लिट्टी-चोखा खाने के मूड में नहीं हैं। पंद्रह साल से लालू जी ने बिहार को हेमा मालिनी के गाल जैसी चिकनी सड़क देने का सपना खूब दिखाया। पटना से चिकनी सड़क और रेल सब उनकी ससुराल तक जाकर सिमट जाती थी। अब पति-पत्नी के परिवार-वाद की राजनीति पर बिहारी भाई लोग कब तक ताली पीटते रहते? सो बिहार ने अबकी उनके लालटेन को पूरी तरह से बुझा दिया है। अब उन्हें बिजली चाहिए, विकास चाहिए। खाली मसखरापन से कहीं राज चलता है?
पर लालू जी की भंइसिया तो बड़ी संवेदनशील निकली। अपना नया फ्यूचर तलाशने बिग-बॉस के घर पहुंच गई। यह सब राजनीति का ही असर है, इसलिए लालू जी से एक कदम आगे चल रही है। अब यह लालू जी पर डिपेंड करता है कि वे अपनी भंइसिया के साथ जाएंगे या नहीं? फिलहाल वे नीतिश जी के जीत व अन्ना के लंबे उपवास के रहस्य का पता लगा रहे हैं। जबकि बिहारियों ने उनको उन्हीं के अंदाज में अबकी डांट दिया है- भाक बुड़बक! इ ललटेनवा (लालटेन) बिहार में और केतना दिन तक चली?
***
No comments:
Post a Comment