बाल कहानी
मंच सजा हुआ था। एक बड़ा सा बैनर स्टेज की शोभा बढ़ा रहा था- भूत-सम्मेलन। जगह-जगह शहर भर में यह प्रचार कर दिया गया था कि सम्मेलन पार्क में आज भूतों का सम्मेलन होने जा रहा है, इस अनोखे सम्मेलन को सुनना न भूलें। जिसने भी इस विज्ञापन को पढ़ा,सुना, हैरान रह गया। कवि-सम्मेलन सुना था, पर यह भूत सम्मेलन क्या है? पहले न कभी सुना, न देखा और न ही कहीं पढ़ा। लोग एक दूसरे से पूछते क्या सचमुच में यहां भूत आने वाले हैं? जानकार बताते हां भाई, भूतों को ही आमंत्रित किया गया है। आज आप भूतों को सुन सकते हैं। अतः भूतों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी थी।
बेनी प्रसाद स्कूल के मास्टर थे। वे जिस नौ मंजिला फ्लैट में रहते थे, उसी फ्लैट की छत पर शाम को अक्सर इन भूतों से भेंट हो जाती थी। बेनी प्रसाद ने कभी इन भूतों को दृश्य रूप में नहीं देखाथा। पर उन्होंने अपने अंतर्मन की शक्ति से सदैव यह महसूस किया कि यहां चार शक्तियां हैं जो रोज शाम को बैठती हैं, और गप्पे मारती हैं। चार किस्म की आवाज से ही उन्होंने चार भूतों के होने अनुमान लगाया था। बेनी प्रसाद के पहुंचते ही पहले तो वे चुप हो जाते, फिर अपनी लय में आ जाते। कभी-कभी बेनी प्रसाद उन भूतों के प्रति सहानुभूति के दो शब्द कह दिया करते थे, ऎसे ही धीरे-धीरे उन भूतों की सहानुभूति भी मास्टर साहब से हो गयी थी। जब चारों की कहानी को मास्टर साहब ने जाना तो उन्होंने तय किया कि क्यों न इन भूतों की कहानी को जनता के बीच उन्हीं के शब्दों में ले जाया जाय। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आयोजन किया गया था। भूतों को देखने व सुनने के लिए मैदान खचाखच भरा हुआ था।
बेनी प्रसाद ने आयोजन का प्रारंभ करते हुए लोगों को यह सूचना दी - मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि हमारे आमंत्रण पर चार भूत महोदय आज हमारे बीच उपस्थित हो चुके हैं। ऎसा सुनते ही सम्मेलन पार्क में एक हल्ला उठा। कहां...कहां...किधर...लोग उत्सुक थे कि किसी तरह से उन्हें भूत दिख जाय। मंच पर चार कुर्सियां लगी हुई थीं। उसके आगे मेज सफेद कपड़े से ढ़का हुआ था, जिस पर चार पानी के ग्लास थे। उसे ढंक कर रखा गया था ताकि बेचारे भूतों को किसी तरह का इंफेक्शन न हो जाए। एक सुंदर सी स्त्री थाल में फूलों की माला लिए खड़ी थी। माल्यार्पण के लिए शहर के विधायक जी भी तैयार थे। पर भूतों का कहीं भी अता-पता नहीं था....
बेनी प्रसाद ने कहा, मैं विधायक श्री ललन पहलवान जी से आग्रह करता हूं कि वे हमारे आमंत्रित भूत महोदयों को माला पहना कर हार्दिक स्वागत करें। ललन पहलवान के हाथों में माला आती गयी और उन्होंने एक-एक करके सब भूतों को माला पहना दी। अब तक दृश्य पूरी तरह से बदल चुका था। लोग दांतो तले अंगुली दबाने को मजबूर थे क्योंकि कुर्सी के आगे चार मालाएं जिस प्रकार से भूतों की गर्दन में लटक रही थीं उससे यह साफ पता चल रहा था कि भूत वहां मौजूद हैं। हवा में यूं ही माला तो लटक नहीं सकती थी। अब पार्क में सन्नाटा था। सब अगले पल घटने वाली घटना पर टकटकी लगाए हुए थे।
स्वागत समारोह खत्म होने के बाद बेनी प्रसाद ने एक भूत का परिचय देते हुए कहा, अब मैं हाथ काटा दा को माइक पर आकर कुछ कहने की गुजारिश करता हूं। आप एक क्लब के एक्टिव मेम्बर थे। पर गंगा में डूबने से आपकी अकाल मृत्यु हो गयी। अब आप भूत का जीवन बड़ी भद्रता व शालीनता के साथ जी रहे हैं। आप हमसे कुछ कहना चाहते हैं, स्वागत है..आइए...
नमस्कार बंधुओं। लोग मुझे हाथ काटा दा के नाम से जानते थे। मार-पीट में मेरी कई उंगलियां कट गयीं, फिर बाद में बम से मेरा हाथ ही उड़ गया। इसी से मेरा यह नाम पड़ा। ...पर आज तक मैंने किसी के हाथ नहीं काटे। किसी प्रकार की गलत फहमी में न रहिएगा। हां मैं जब जीवित था तब क्लब वालों के साथ खूब मूर्ति-पूजा करता था। दुर्गा-पूजा, काली-पूजा, जगत्धार्ती-पूजा, सरस्वती-पूजा....। कोई भी पूजा बाद नहीं जाता था। चंदा वसूली करता। कभी-कभी लोगों से जबरदस्ती भी करनी पड़ती थी। थोड़ा बहुत हमलोग दादा-गीरी भी दिखाते थे, और मन-भर चंदा उगाह लेते।.....लोगों ने देखा कि सेवकों ने भूत को पानी पिलाया...लोगों ने बड़ी उत्सुकता से भूत हाथ काटा दा को पानी पीते हुए देखा।.....लोग उनकी सच्ची-सच्ची बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे जिसे जीते जी क्लब वाले कभी स्वीकार नहीं करते।
भूत ने आगे कहा, पूजा के दौरान हमलोग जोर-जोर से माइक बजाते, ढ़ाक पीटते और लोगों का जीना हराम कर देते थे।....दर्शकों के बीच हंसी का गुब्बारा फूटा... भूत ने भी सांस लेकर कहा, फिर हमलोगों का खावा-दावा (भोज) चलता। और क्या चाहिए था। इसलिए तो पूजा होती थी। विसर्जन के समय हमलोग बेढ़ंगें गीत पर बेढ़ंगा डांस करते हुए जुलूस निकालते। सड़क जाम करने पर गर्व महसूस होता। और नाचते-नाचते काली मां को गंगा में डुबो आते। पर उस दिन मेरे साथ एक दुर्घटना घट गयी। ...काली जी की विशाल मूर्ति थी। उस साल हमलोग उसे एक नाव पर लेकर गंगा के बीच में विसर्जित करना चाहते थे। सब कुछ ठीक-ठाक ही था। जैसे ही विसर्जन के लिए काली जी को लोगों ने हाथ लगाया, नाव ही पलट गयी। काली जी हमी पर आ गयी। फिर क्या था, काली जी ने अपने साथ साथ मुझे भी जल समाधि में लेने का फैसला कर लिया था। और मैं डूब कर मर गया।
भूत महोदय ने मीठे अंदाज में ऎसी त्रासद कथा सुनाई कि सबको उस पर दया आ गयी। चारों तरफ एकदम शांति थी। भूत ने अपने वक्तव्य को समेटते हुए कहा, अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि जब तक मैं जीवित था, मूर्ति-पूजा में ही फंसा रहा। उस दिन मां काली ने भी मुझे नहीं बचायाथा। बल्कि मेरी जान तो उसी ने ली। इस मूर्ति पूजा में कुछ भी नहीं रखा भाई। सब बेकार का ढोंग है। थोड़ा ठंडे दिमाग से आपलोग भी सोचिएगा कि इतनी मूर्तियां जो हमलोग गंगा या किसी नदी में डालते हैं तो इससे क्या नदी गंदी नहीं होती? आखिर उसी नदी का पानी हमलोग पीते हैं फिर उसे इस तरह गंदा करने का अधिकार हमें किसने दिया? फिर पूजा-पाठ की सामग्री, फूल, पॉलीथीन आदि सब हमलोग नदीं में ही क्यों फेंकते हैं? यह कौन सी सभ्यता है?.....देखिए मेरे साथ एक दस वर्षीय बच्चा भूत भी आया हुआ है। यह अपने पिता का एकमात्र पुत्र था। कहानी एकदम सच्ची है। आज भी इसका पिता डाब (नारियल पानी) बेचता है। उनके यहां सरस्वती पूजा हुई थी। फिर बाप-बेटा मूर्ति लेकर गंगा किनारे आए। हावड़ा में गंगा किनारे पर ही इतनी गहरी है कि हाथी डूब जाय। अतः बाप-बेटों ने मूर्ति दोनों हाथों से पकड़ी और झूले की लय में झटके के साथ बाप ने मूर्ति को गंगा में फेंक दिया। बाप ने तो हाथ समय पर छोड़ दिया पर बेटा मूर्ति को पकड़े रह गया। फिर क्या था, संतुलन बिगड़ गया और मूर्ति के साथ-साथ बच्चे का भी विसर्जन हो गया।...बाप चिल्लाता रह गया, बच्चा डूब गया। ....आपने मेरी बात ध्यान से सुनी इसके लिए धन्यवाद। भूत महोदय अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गए।
बेनी प्रसाद ने सार्थक वक्तव्य रखने के लिए भूत को धन्यवाद दिया और यह आशा प्रकट की कि लोग जरूर हाथकाटा दा जैसे मूर्ति पूजक के पछतावे पर गौर करेंगे। अपना जीवन बेहतर ढंग से बिताएंगे।
आगे उन्होंने डॉ. माल पानी को आमंत्रित करते हुए कहा, अब हमारे सामने जो भूत महाशय आ रहे हैं वे पेशे से एक डॉक्टर थे। अब आप मात्र एक भूत हैं। आप हमसे कुछ कहना चाहते हैं....आइए....
भूत डॉ माल पानी ने माइक संभालते ही कहना शुरु किया, मुझे लोगों की सेवा का मौका मिला था। पर मैं रूपया के पीछे ऎसा भागा कि मैं अपने पेशे से बहुत दूर चला गया। जब भी मेरे पास कोई रोगी आता मैं उसके रोग को देखने के बजाय उसकी हैसियत का अंदाजा लगाता। उसकी सुनता कम फटाफट मंहगी-मंहगी एंटीबॉयटिक दवाएं लिख देता। कुछ दिनों के बाद उसे दुबारा आना पड़ता तो लगभग सभी टेस्ट लिख देता जिसकी कोई आवश्यकता न होती थी। मुझे इसका कमीशन मिल जाता। इस तरह मैं महंगी कम्पनियों व क्लिनिक का एजेंट बनकर रह गया। इस तरह से मैं माल पानी खूब माल बनाता रहा और उधर बेचारे रोगी मेरी महंगी, पावरफुल दवाइयां खा-खाकर अपने अंग खराब करते रहे। कइयों की तो मौत भी अधिक दवाई खाने से हो गयी। इस प्रकार मैं अपने रोगियों को त्राण देने के बजाय उनका खून ही चूसता रहा। यदि मैं अपने काम के प्रति ईमानदार रहता तो भगवान बन सकता था पर मैं य़मदूत बन गया। सच कहता हूं मैंने अपना जीवन बर्बाद कर दिया......मैंने काम ही ऎसा किया है कि पछतावा के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकता। आज मुझे उन डॉक्टरों से ईर्ष्या हो रही है जो बड़ी ईमानदारी से अपनी सेवा दे रहे हैं। डॉक्टरों का, वकीलों का, मास्टरों का क्षेत्र सेवा का क्षेत्र है।.... मुझे यह समझ में नहीं आता कि मरने के बाद ही लोगों को क्यों समझ में आता है? जीते जी पढ़े लिखे लोग भी अपने मिशन से भटक क्यों जाते हैं? ....मैं आपका समय अब ज्यादा नहीं लूंगा। और भी वक्ता लोग इंतजार कर रहे हैं। धन्यवाद।
बेनी प्रसाद ने कहा, डॉ माल पानी ने जिस ईमानदारी से अपनी गलतियों को स्वीकार किया वह काबिले तारीफ है। हमें अपनी गलतियों को जरूर सुधारना चाहिए। आशा है जो डॉक्टर अपने पेशे से भटक कर रोगियों का खून चूस रहे हैं वे डॉ माल पानी से कुछ सीखेंगे।
अब मैं एक ऎसे वक्ता को बुलाने जा रहा हूं जिसे हम खा-खाकर अघा जाते हैं। आप फलों के राजा आम महाराज हैं। आपकी पत्तियां, लकड़ी, फल सब पूजनीय है। आप बड़े पवित्र हैं। पर एक दिन लोगों ने आपकी हत्या बड़ी निर्ममता से कर दी। आपका दुख हम आपके ही मुख से सुनना चाहेंगे। ...आइए..स्वागत है आपका...
किसी जमाने में मैं एक विशाल पेड़ हुआ करता था। मेरी घनी छाया में न जाने कितने लोग आकर बैठते, सोते। बच्चे मेरी छत्र-छाया में खूब खेलते। जब भी कोई उत्सव होता लोग मेरी पत्तियां तोड़ कर ले जाते, लकड़ियां काट ले जाते। मैंने कभी मना नहीं किया। मैं खूब फलता। कच्चा आम का मजा तो लोग लेते ही, पक कर भी मैं लोगों को सुख देता। फिर मैं जिस गांव में पड़ता था उसका भी दुर्दिन आ गया। कलकता फैलता हुआ यहां तक आ पहुंचा। मैं भी शहरीकरण का शिकार हो गया। प्रोमटरों की नजर उस जमीन पर पड़ गयी जिस मैंने कई जमाना देखा था। एक दिन मुझे मुड़ दिया गया। फिर जड़ से धड़ अलग कर मेरी हत्या कर दी गयी। मनुष्य की इस क्रूरता पर मैं खूब क्रोधित हुआ। पर कर ही क्या सकता था?...किसी जमाने में मैं सबको छाया देता था, पर आज मैं बेनी प्रसाद की बिल्डिंग की छत पर छाया पाने के लिए संघर्ष कर रहा हूं।
आम के पेड़ ने फिर कहना शुरु किया। बंधुओ... मेरी समझ में यह नहीं आता कि जो शहर वासी अपने को इतना आधुनिक समझते हैं वे हम पेड़ों को शहर से बाहर निकालने पर क्यों आमदा हैं? शहरों में हमलोगों के लिए जगह क्यों नहीं छोड़ी जा रही है? बल्कि उन्हें तो गलियों में भी हर घर के सामने पेड़ लगाना चाहिए। मुख्य सड़क के दोनों ओर हमलोगों के लिए जगह अवश्य होनी चाहिए। बिन पेड़ों के जिस शहर की परिकल्पना आज के प्रोमोटर, सरकार आदि कर रहे हैं वह मानवता के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट को दखल देते हुए कड़ा कानून बनाना चाहिए ताकि हमलोगों को शहरों से बेदखल करना रोका जा सके। मैं मास्टर साहब को धन्यवाद देता हूं जिन्होंने ऎसी व्यवस्था की कि आज हमें भी सुना गया।...आप सभी को इस भूत का नमस्कार।
बेनीप्रसाद ने आम को धन्यवाद दिया और अपने अंतिम वक्ता को बुलाया। परिचय देते हुए कहा, आप एक अच्छे सिविल इंजीनियर थे।उस दिन आप एक मल्टी-स्टोरी बिल्डिंग के इंस्पेक्शन पर थे कि अचानक पूरी इमारत ही धराशायी हो गयी और आप मारे गए।भटकते-भटकते आज आप इन्हीं भूतों के साथ रहते हैं। आज आप हमलोगों से कुछ कहना चाहते हैं...आइए..अपने विचारों से हमारा मार्ग-दर्शन कीजिए...
इंजीनियर जॉन साहब ने माइक संभाला। उनकी बात सुनकर सभी लोग डर गए। उन्होंने कहा, प्रिय शहरवासियों...आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि गांवों की अपेक्षा जितने भी बड़े-बड़े शहर हैं वे विनाश के कगार पर खड़े हैं। कारण सीधा-सा है। बड़े-बड़े शहरों की ऊंची-ऊंची इमारतों के लिए लगातार जो जमीन से पानी निकाला जा रहा है उससे धरती खोखली हो रही है। शहरों की सड़कें, फुटपाथ, नालियां सभी पक्की हैं। मतलब कहीं से भी बरसात का पानी जमीन के अंदर नहीं जा रहा है। सब बह कर नालियों द्वारा शहर के बाहर चला जा रहा है। सरकार, या सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं यह अनिवार्य करती कि छत के पानी को वहीं जमीन के भीतर भेजने की कोई कारगर व्यवस्था अपनायी जाय। ऎसा हम एक कुआं खोदकर, उसमें बालू ईंटा भर कर छत की पाइप से कनेक्ट कर ऊपर से बंद कर किया जा सकता है। जैसा कि मेरे आम भाई ने कहा, कि शहरों में यदि पेड़ों को स्थान नहीं मिलेगा और बरसात में पानी यदि धरती में नहीं समाएगा तो जगमग करने वाली इस शहरी सभ्यता का भविष्य कितना सुरक्षित रह जाएगा? सब कुछ भूकम्प के एक झटके में नेस्ता-नाबूद हो सकता है।...यह हम शहरवासियों को गंभीरता सोचना चाहिए।...हमलोग तो ठहरे भूत... भविष्य को तो वर्तमान ही बचा सकता है। अब आप ही लोग कुछ कर सकते हैं।...धन्यवाद।
लोगों ने खूब ताली पीटी।.....भूतों ने इतनी अच्छी-अच्छी बातें जो कही थीं। अंत में विधायक महोदय ने बेनीप्रसाद और अतिथि सभी भूतों को धन्यवाद दिय़ा। बेनीप्रसाद को विशेष रूप से धन्वाद दिया गया जिन्होंने ऎसा अनोखा आयोजन शहर में पहली बार सफलता से करवाया था।
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