कविता (11.08.2016)
उड़ता हुआ सागर
जयप्रकाश सिंह बंधु
एक सागर था जमीन पर
एक था आसमान में
उड़ता हुआ सागर
रूई-सा उतर गया वह
पर्वत पर चुपचाप
अति कठोर पत्थर-सा
जम गया
बन गया बर्फीस्तान
ताकि बहती रहे नदियां
टूटते हैं जैसे तट-बंध
टूटती रहे परंपराएं
और नवनिर्मित हों सभ्यताएं
समृद्ध संस्कृति के लिए
फटा जब वह किसी पर्वत पर
चूर हो गए शिखरों के दर्प
बहा ले गया दूर उन्हें
कहीं
और बिछा दिए मैदानों में
आत्महत्याओं के खिलाफ
ताकि बची रहे, कृषिकारिता
उतरा जब वह किसी जंगल में
गांवों में, और शहरों में
डूब गया सब कुछ
फिर मचा जल-प्रलय का
तांडव
बहुतों की पोल खुल गयी
नष्ट हो गया बहुत कुछ
पर भीतर ही भीतर
रच दिए उसने
सृष्टि के नए भंडार
एक सागर था जमीन पर
एक था आसमान में
फैलता हुआ रूई-सा सतरंगी
उड़ता हुआ जीवन।