कविता
बाबूजी पर
आरोप था
-जयप्रकाश
सिंह बंधु
भाई अक्सर
पूछा करता था बाबूजी से
क्या किया
आपने हमारे लिए?
वैसे भी
बाबूजी बोलते बहुत ही कम थे
ऐसे
प्रश्नों पर तो बिलकुल ही उत्तर नहीं देते थे
शायद हंस
देते हों भीतर ही भीतर
बाबूजी के
नाम पर कोई पूंजी नहीं थी
हमलोगों के
लिए छोड़ी थी उन्होंने
एक घड़ी,
छाता, धोती-कुर्ता
सीधा
सपाट-सा जीवन
संतोष धन और
ईमानदारी
कभी उन्हें
किसी को ठगते नहीं देखा हमने
स्वयं के
ठगे जाने पर हो जाते थे आग बबूला
एक बार सड़क
पर मिल गयी थी उन्हें सोने की हार
खुशी नहीं
हुई थी उन्हें, करते जाते थे अफसोस
‘देख ना...
केकर गिर गोइल, कतना परेशान होइ उ’
तभी बेचैन
एक स्त्री सड़क पर थी खोजती अपनी हार
दौड़कर पूछा
था बाबूजी ने, और दे दिया था उसे
बेहद
प्रसन्न थे उस दिन बाबूजी
पर महिला ने
बाबूजी को बेवकूफ कह दिया था
यह खबर
उड़ती-उड़ती जब पहुंची थी मां के पास
तो जी भर कर
कोसा था बाबूजी को
तब बाबूजी
ने मुस्कुरा कर अपने को
बड़ी
मुश्किल से संभाला था
हमलोग जिस
घर में रहते थे बाबूजी ने ही बनवायी थी
अवकाश ग्रहण
करने के बाद
सभी
भाई-बहनों को मिले थे
पढ़ने-लिखने
के अवसर समान भाव से ही
फिर भी भाई
का आरोप था.....
जिसे सुनने
के बाद
बाबूजी की
चुप्पी और गहरी हो जाती थी
बाबूजी शायद
कहना चाहते थे
और कहा भी
था अप्रत्यक्ष रूप से कई बार
पशु-पक्षी
भी कर लेते हैं भोजन का जुगाड़
सही-सलामत
हैं हाथ-पांव भगवान की दया से
परिश्रम से
क्या नहीं हो सकता?
कोई न कोई
जुगाड़ बैठ ही जाएगा
निकालने से
निकल ही जाएगी कोई राह
हिम्मत नहीं
हारनी चाहिए पुरूष को कभी
यही सब
कहते-कहते एक दिन बाबूजी
निकल गए थे
चुपके से महाप्रयाण पर
उस दिन
फूट-फूटकर रोए थे हम सब
बस नहीं
रोया था तो वह भाई ही था
वह तब भी
अड़ा हुआ था अपनी बात पर भीतर ही भीतर
व्यर्थ हो
गए थे हमारे लिए मकान, गांव, खेत-खलिहान
मानो सब कुछ
रिक्त हो गया था
अपने आप में
वे कोई मणि
या कोई बेस
कीमती हीरा ही थे
जो कहीं खो
गया था
फिर भी बाबूजी
पर आरोप था......
जाते-जाते ले
गए थे ढोकर जिसे
अपने माथे पर।
***