प्रकाशित- बाल साहित्य संसार (World of Children's Literature) August-2, 2014
अनुवाद- जयप्रकाश
सिंह बंधु
शाम का वक्त था। रोज की तरह हारु बाबू काम के
बाद अपने घर लौट रहे थे। स्टेशन से उनका घर आधा मील की दूरी पर था। अंधेरा घिरने
लगा था। अतः हारु बाबू के पैरों में तेजी आ गयी। एक हाथ में बैग और दूसरे में छाता
थामें हारु बाबू दनादन घर की ओर बढ़े जा रहे थे।
थोड़ी दूर चलने पर उन्हें यह आभास हुआ कि कोई है
जो उनके पीछे-पीछे चल रहा है। आड़ी-तिरछी नजरों से उन्होंने देखा, तो सही में
कोई था जो हनहनाते हुए उनकी ओर चला आ रहा था। उनकी आशंका सही साबित हुई। भय ने
उन्हें सताया। कहीं चोर-डकैत तो नहीं?... बाप रे! सामने सुनसान मैदान की याद आते
ही उनके हाथ-पांव फूल गए। जरुर सुनसान मैदान में अकेले पाकर मुझ पर हमला कर देगा।
कहीं दो-चार लाठी मेरी गर्दन पर जमा दिया तो आज तो मैं गया काम से। यह सोचकर उनके कांपते
हुए दुबले-पतले पैरों ने
उनकी चाल को गति दी। अब वे लगभग दौड़ने लगे। पीछे तिरछी नजरों से फिर देखा।... बाप रे! पीछा
करने वाला भी उन्हीं की भांति दौड़ रहा है।
तब हारु बाबू ने सोचा आज इस सुनसान मैदान को
पार करना ठीक नहीं होगा। इस सीधे रस्ते को त्यागने में ही भलाई है। उन्होंने उस
घुमावदार रास्ते को पकड़ लेना उचित समझा जो वैद्य पाड़ा से होकर उनके घर को जाता
था। थोड़ा पैदल अधिक ही चलना पड़ेगा तो क्या, जान तो बचेगी। निर्णय ले चुके
थे। एकाएक वे दाहिने मुड़कर एक गली में घुस पड़े। वहां एक बेड़ा को कूद कर पार
किया और एक दौड़ में सीधे मुख्य मार्ग पर आ निकले। पर नजर तो उनकी पीछे टिकी हुई
थी।.... देखा तो काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी। वह भी कितना दुष्ट था। उन्हीं
के जैसा कूदता फांदता, उसी गति से वह भी बेरस्ते से मुख्य मार्ग पर आ धमका
था।
हारु बाबू ने अब अपना छाता कसकर पकड़ लिया। अपनी
सुरक्षा पर विचार किया। अब किस्मत में जो होगा वह तो होगा ही। यदि वह सामने आ
गया तो छाता घुमाकर उसकी गर्दन पर दो-चार वार वे जरुर कर देंगे। उन्हें स्मरण हो
आया कि बचपन में किस प्रकार वे जिमनॉस्टिक किया करते थे। वह किस दिन काम आयेगा?
यही सोचकर उन्होंने अपने हाथों को मोड़कर दो-तीन बार मांशपेशियां फुलाने की कोशिश
की। जांचना चाहा कि अब भी वह ताकत शेष है कि नहीं।
थोड़ी ही दूर पर काली मंदिर था। उसके नजदीक
पहुंचते ही उन्होंने फिर से एक बार मुख्य सड़क छोड़ दिया और जंगल-झाड़ को
फांदते-रौंदते हुए भागने लगे। पीछे से पैरों की आवाज से उन्हें समझते देर न लगी
कि वह दुष्ट व्यक्ति भी ठीक उन्हीं की तरह बदहवाश पीछा कर रहा है। अब तक उन्हें
यकीन हो गया था कि डकैत नहीं तो और क्या है? कोई भला आदमी उनका इस तरह पीछा
क्यों करेगा? आफत बहुत बड़ी थी। यह सोचकर ही उनके हाथ पांव ठंडे पड़ गए। माथे पर
पसीने की बूंदे दिखाई पड़ी।
ठीक इसी समय उनके कानों में कुछ लोगों की
बातचीत के स्वर सुनाई पड़े जो काली मंदिर के घाट पर बैठे लोगों के थे। हारु बाबू
की हिम्मत थोड़ी बंधी, वे हठात् छाता ताने पीछे मुड़े और सिंह गर्जना करते हुए
बोले- "क्यों रे! क्या मंशा है तेरी? अपनी भलाई चाहता है
तो..।"....किंतु हारु बाबू ने जब उस व्यक्ति को गौर से देखा तो वह बड़ा
निरीह जान पड़ा। कम से कम वह डकैत तो किसी भी दृष्टि से न लगता था।
हारु बाबू अब तक काफी नरम पड़ चुके थे। पर इस
व्यक्ति ने उन्हें बहुत सताया था। संदेह मिटाने के लिए उन्होंने डांटते हुए
पूछा- "इस प्रकार बिना मतलब का तू मेरा पीछा क्यों कर रहा है?" वह बड़ा
भयभीत था। दबे हुए स्वर में उसने कहा कि स्टेशन मास्टर ने उसे बताया था कि आप
बलराम बाबू के घर के पास ही रहते हैं। आपके पीछे-पीछे जाने से मैं ठीक गंतव्य तक
पहुंच जाऊंगा।... क्या आप रोज इसी तरह कूदते-फांदते हुए घर लौटते हैं?
यह सुनकर हारु बाबू का मुख खुला का खुला
रह गया। उन्हें कुछ उत्तर देते न बना। उन्होंने ठंडी सांस ली और बड़े ही आराम
कदमों से अब सीधे रास्ते से घर की ओर बढ़ चले।
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