Monday 3 August 2015

रोटी



रोटी
-जयप्रकाश सिंह बंधु


बचपन में एक कहानी पढी थी
रोटी के लिए कैसे झगड़ रही थीं दो बिल्लियां
तभी आया था एक बंदर
रच दिया था रोटी बांटने का षडयंत्र
और बांटते-बांटते
खा गया था पूरी रोटी
सीख गया था बचपन में ही मैं
मिल-बांटकर खानी चाहिए रोटी

इसी तरह एक स्टेशन पर मैंने देखा था
जो गांव के किसी उत्सव के बाद विदा हुए थे
पकड़नी थी उन्हें गाड़ी रोटी के लिए
और जब आयी थी गाड़ी उनकी
आंखों में आंसू थे, होंठो पर आशीर्वाद
सवार हो गया था परिवार का एक हिस्सा
उस गाड़ी में जो दिल्ली की ओर जा रही थी
जबकि बाकी लोग
कलकत्ते की ओर रवाना हुए थे
और जो रह गए थे गांवों में
पसर गया था उनके सामने
सन्नाटा......
कई दिनों तक

रोटी के लिए आदमी क्या नहीं करता?
सीख जाता है रस्सी पर चलना
छोड़ देते हैं लोग अपना वतन
बेच देती है कोई लड़की अपनी अस्मत
खून हो जाता है किसी भाई का

चोरी, छिनताई, पाकेटमारी, डकैती में भी
कबख्त यह रोटी ही है
जिसके लिए डाल देते हैं लोग
जान जोखिम में
बन जाते हैं बहुरूपिया
और दिखाते हैं सर्कस
सड़क से संसद तक

और यदि थोड़ी देर के लिए
मान लिया जाए संसद को एक सर्कस-खाना
तो यहां क्या नहीं होता रोटी के लिए?
बनती हैं बड़ी-बड़ी योजनाएं
जिसमें फंसकर रह जाती है गरीब की रोटी
पर आती है बारी जब अपनी रोटी की
तब हें-हें करते, मेज थप-थपाते
चुपके से पास हो जाते हैं प्रस्ताव
बिना हो-हल्ला के, बिना पटका-पटकी किए
हड़प ली जाती है रोटी

पर मित्रों सावधान!
तवे पर उलटी-पलटती यह रोटी
पलटती आयी है व्यवस्थाओं को
उजाड़े हैं इसने क्रूर साम्राज्य
और बसाएं हैं नए-नए गांव भी
फैला दिए हैं शहरों को

सदियों से हाथों या चौकी-बेलन के बीच
घूम रही है रोटी
या घुमा रही है पूरी पृथ्वी को
अपने ही लय में

धीरे-धीरे?


पहला पुस्तक मेला

तीन साल का एक बच्चा
पुस्तकों को छू-छू कर उत्सुकता से पूछता जाता था
जो उसकी दृष्टि से बहुत ऊपर सजी हुई थी
यह क्या है...यह क्या है....और यह...
थोड़ा बच्चा बन कर पुस्तक बिक्रेता ने भी
बार-बार उससे यही कहा था
यह पुस्तक है बेटा...यह भी पुस्तक है..और यह भी
जबकि उसकी मां उसे घसीटते हुए
आगे बढ़ते जाते की धुन में थी, और कहती थी -
यह सब तुम्हारे लिए नहीं है

तभी बिक्रेता ने उसके हाथ में दिया था एक पुस्तक
यह कहते हुए कि लो, यह तुम्हारे लिए है..
बच्चा खुश होकर उलटता गया था पन्ना
और बच्चे के सामने प्रकट हो गए थे यकायक
पहाड़, जंगल, नदी, रेलगाड़ी
उसके जैसे बच्चे, मम्मी-पापा भी
खट्टी-मीठी इमली, घूमता हुआ लट्टू
और न जाने कितने ढेर सारे खिलौने

बच्चा गौर से देख रहा था उड़्ते हुए पतंग को
जिसे थामे था उसके जैसा ही एक बच्चा
लाओ रख दो इसे झोले में अब, कहा था मां ने
पर बच्चा छाती से लगाए था पुस्तक
दोनों हाथों में जकड़े, वह देने के मूड में नहीं था
मानो कोई खजाना मिल गया हो उसे
जो केवल उसका ही था

पहला पुस्तक मेला था यह उसका
जिसने पल में दिखा दिया था
कला की एक नई
जादुई दुनिया।
   
मय

मय बताती घड़ी को भी
चलते रहना होता है समय के साथ
और जब कभी होने लगती है स्लो या फास्ट
तो मय ही उसे समय से
ठीक करता रहता है

समय घड़ी को ही नहीं
अच्छों-अच्छों को ठीक कर देता है मय पर
कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल
अपनी धुन में चलता रहता है
यह मय

जब पड़ता है किसी का समय कमजोर
तो धरे के धरे रह जाते हैं सारे साधन
जिसे हम बुरे वक्त के लिए
ंजो कर रखते हैं
व्यर्थ हो जाती है प्रार्थनाएं
और छीन लेता है मय कुछ
मय बहुत पहले।

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