Monday 3 August 2015

चुपके से

कविता
चुपके से
-जयप्रकाश सिंह बंधु

कट जाते हैं चुपके से
शहर के पेड़
भर दिए जाते हैं तालाब

झोपड़ियां, पुराने घर भी
टूट जाते हैं चुपके से
और पर्दे के पीछे
चलता रहता है निर्माण
रची जा रही होती है साजिशें

एक दिन पर्दा के हटते ही
चुपके से बदल जाती है
शहर की तसवीर

मित्रों! तब तक
शहर के बचे-खुचे पक्षी भी
कर चुके होते हैं पलायन
चुपके से।

बिंदिया

दर्पण के किसी कोने में
या दरवाजे की चौखट पर
कहीं-कहीं बाथरूम की दीवार पर ही सही
बना ही लेती हैं ये बिंदिया
अपने लिए जगह

लाल-काली, हरी-नीली
रंग-बिरंगी, प्यारी-प्यारी
किसम-किसम की तारे जैसी
आकर्षक बिंदिया

दादी की बिंदिया
मां की बिंदिया
पत्नी की बिंदिया
पीढ़ी दर पीढ़ी ये
इसी तरह बनाती आयी हैं
अपने लिए जगह
और जगमगाती रही हैं वैसे ही
जैसे जगमगाते हैं
आसमान में नक्षत्र।




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