प्रकाशित, संडे मेल (23-29 जनवरी, 1994)
एक सव्याख्या कविता
कविता बदलाव को तो पकड़ती ही है, साथ-साथ वह पूर्वदर्शी भी होती है। कल जो हो सकता है, कविता उसे भी प्रकट करने की क्षमता रखती है।
मैंने एक कल्पना की है, पर वह कल्पना हवा में टंगी हुई नहीं है, बल्कि यथार्थ की भूमि पर ही खड़ी है। कल्पना है- निरंतर मानव-शक्ति के दबाव से प्रकृति कहीं-कहीं चरमराने लगी है, हारने लगी है ( पर विडंबना यह है कि मनुष्य इसे महसूसता तो है पर प्रकृति पर पड़ते दबाव को रोक नहीं पा रहा ) अर्थात् प्रकृति का अपना स्वाभाविकपन खत्म हो रहा है। मनुष्य ने हवा को, पानी को एक रंग दिया है। ओजोन छत को नष्ट किया है। मानव की इसी प्रवृत्ति को केंद्रित कर मेरी यह कल्पना है कि एक दिन नियमानुसार पृथ्वी-वासी रात को सोते हैं। चिड़िया खूब चहचहाती है, मुर्गे भी कस-कस कर बांग देते हैं पर भोर नहीं होती। सूरज का कहीं भी अता-पता नहीं है। पूरी पृथ्वी अंधकार में डूब जाती है। पूरी पृथ्वी के लोग इस दैवी-प्रकोप के भय से एक हो जाते हैं। सभी देशों की सीमा-रेखा मिट जाती हैं। जाति-पाति के भेद-भाव भी नहीं रह जाते। पूरी दुनिया में युद्ध थम-सा जाता है। सभी वैज्ञानिक अपने पिता (सूरज) का पता लगाने में बेचैन हो जाते हैं। पर अंततः पिता के मरने की ही खबर आती है। मां विधवा हो जाती है। इस स्थिति में भी मां के सुपुत्रों का अपनी प्रगति पर अटूट विश्वास है, गरूर नष्ट नहीं होता। वे यह विचारने को कतई तैयार ही नहीं हैं कि यह सब अति प्रगति का ही परिणाम है। फलस्वरूप वे दूसरा पर नकली अनेक/ एक सूरज बनाने की दिशा में प्रयत्नरत हो जाते हैं। ध्वंस होता जाएगा पर मनुष्य रुकेगा नहीं। कब तक?
वस्तुततः इस कविता में मनुष्य की इसी प्रवृत्ति को दिखाया गया है, साथ ही जागने का आह्वान भी है।
उस दिन-
नहीं थी कोई
सीमा-रेखा
नहीं थी कहीं
कोई जाति
मिटे थे सब भेद
पूर्वजों के।
युद्ध!
वह तो कब का
थम-सा गया था
पर-
प्रकृति का क्रम
गड़बड़ा-सा गया था
उस दिन चिड़ियां
खूब चहचहायी थी
मुर्गे ने भी
कस कस के
बांग दी थी
पर सब व्यर्थ सिद्ध हुआ था
अपना पिता पश्चिम से
नहीं लौटा था।
कुछ देर बाद
मां के विधवा होने की
खबर आयी थी
कि उसके सुपुत्रों ने
अपनी प्रगति के गरूर में
मां का दूसरा
नकली ब्याह
रचाने का संकल्प
लिया ही था-
कि मैं जाग उठा
उस भयावह 'सपने से'
***
No comments:
Post a Comment