कविता
मेरा देश
-जयप्रकाश सिंह बंधु
मुझे अपने देश पर
पूरा भरोसा है
कि वह अभी मरा नहीं
है
भले ही वह दो कौड़ी के
नेताओं की तरह
अधिक वाचाल नहीं है
और न ही उग्रता,
हिंसा उसका स्वभाव है
सहनशीलता आज भी ऐसी
कि हे राम कहते हुए-
गांधीजी की तरह
प्राण त्याग दे
पर तुम जिसे अपने
मैं, मेरा, है, था, किंतु, परंतु
की भाषा के कुतर्क में
देश को उलझाना चाहते हो
और राष्ट्रवाद का
नया जो मुहावरा गढ़ रहे हो
वह साफ-साफ देख व
पढ़ रहा है तुम्हारे मन को
चाहे तुम ‘मन
की बात में’ कुछ भी कहते रहो
वह तुम्हारे हर
षडयंत्र का जवाब
समय पर देना जानता
है
यद्यपि एक सच यह भी है
कि उसने तुम जैसे
ठगों पर बार-बार विश्वास किया
तुम्हारी जैसी उसकी
मनुष्यता अभी मरी नहीं है
आदमी पर भरोसा करना उसने
छोड़ा नहीं है
और न ही तुम्हारे
सिखाए किसी मनुष्य से घृणा करना ही
या किसी तरह के कत्ल
पर पागल होकर जश्न मनाना
भले ही तुम्हें
इतिहास भूगोल का ज्ञान नहीं
पर देश जानता है
इतिहास को सहेजने का अर्थ
वह सीखता आया है खराब
से खराब इतिहास से यही
कि जो देश के अनुसार
नहीं चलते, सिर्फ स्वांग रचते रहते हैं
छल करते रहते हैं अपने
ही मासूम लोगों से लगातार
उजड़ जाते हैं ऐसे निरंकुश
साम्राज्य
और तब्दील हो जाते
हैं किसी काले इतिहास में।
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