सबका हित चाहने वाली रचना ही साहित्य है। किसी के लिए वह ब्रह्मानंद है तो किसी के लिए जादूई प्रभाव। वह हमारे भीतर के विकार को निकाल देता है। दृष्टि को परिष्कृत करता है। संस्कार डालता है। परंपरा से बह रही ज्ञान-धारा को बचाए रखता है। जितना हम साहित्य के रहस्य को जानते जाते हैं वह उतना ही रहस्य बनता जाता है। साहित्य के रसास्वादन की आदत जो डाल लेगा वह कभी पथभ्रष्ट हो ही नहीं सकता। वह हमें मुश्किल समय में संबल देता है।
Friday 19 July 2019
Friday 28 June 2019
Wednesday 8 May 2019
मेरा देश (प्रकाशित, अक्षर पर्व दिसम्बर 2018)
कविता
मेरा देश
-जयप्रकाश सिंह बंधु
मुझे अपने देश पर
पूरा भरोसा है
कि वह अभी मरा नहीं
है
भले ही वह दो कौड़ी के
नेताओं की तरह
अधिक वाचाल नहीं है
और न ही उग्रता,
हिंसा उसका स्वभाव है
सहनशीलता आज भी ऐसी
कि हे राम कहते हुए-
गांधीजी की तरह
प्राण त्याग दे
पर तुम जिसे अपने
मैं, मेरा, है, था, किंतु, परंतु
की भाषा के कुतर्क में
देश को उलझाना चाहते हो
और राष्ट्रवाद का
नया जो मुहावरा गढ़ रहे हो
वह साफ-साफ देख व
पढ़ रहा है तुम्हारे मन को
चाहे तुम ‘मन
की बात में’ कुछ भी कहते रहो
वह तुम्हारे हर
षडयंत्र का जवाब
समय पर देना जानता
है
यद्यपि एक सच यह भी है
कि उसने तुम जैसे
ठगों पर बार-बार विश्वास किया
तुम्हारी जैसी उसकी
मनुष्यता अभी मरी नहीं है
आदमी पर भरोसा करना उसने
छोड़ा नहीं है
और न ही तुम्हारे
सिखाए किसी मनुष्य से घृणा करना ही
या किसी तरह के कत्ल
पर पागल होकर जश्न मनाना
भले ही तुम्हें
इतिहास भूगोल का ज्ञान नहीं
पर देश जानता है
इतिहास को सहेजने का अर्थ
वह सीखता आया है खराब
से खराब इतिहास से यही
कि जो देश के अनुसार
नहीं चलते, सिर्फ स्वांग रचते रहते हैं
छल करते रहते हैं अपने
ही मासूम लोगों से लगातार
उजड़ जाते हैं ऐसे निरंकुश
साम्राज्य
और तब्दील हो जाते
हैं किसी काले इतिहास में।
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Friday 24 March 2017
Sunday 5 March 2017
Sunday 27 November 2016
आधा आदमी (28.11.2016)
आधा आदमी
मैं जिस-जिस शहर में गया
वहां-वहां मुझे मिला
यह आधा आदमी
जो रहता तो था शहर में
पर बसाए था अपने अंदर
एक गांव
यह आधा आदमी जो कुछ कमाया शहर में
दिया गांव को भी सामर्थ्य से कहीं अधिक
होता रहा शामिल हर शादी-ब्याह में
लेता रहा खोज-खबर मरनी-जियनी का
और कृषि के मौसम बे-मौसम में भी
खड़ा रहा सकान-भर वह
अपने गांव के साथ
शहर ने इस आदमी को दिया बहुत कुछ
रोटी के साथ-साथ दी बच्चों की शिक्षा
चिकित्सा के साथ-साथ मकान भी दिया
थोड़ा-बहुत बैंक-बैलेंस भी मिला
और धन्य हो गया वह कला-संस्कृति से
पर त्रासदी यह रही
कि इसे अपनाया कभी नहीं
इस शहर ने
दोष इसमें शहर का भी नहीं था
इस आधे आदमी का ही था
क्योंकि शहर में रहते हुए
यह रटता रहा गांव-गांव-गांव
और जब-जब गया गांव
याद आयीं इसे शहर की सुविधाएं
कहीं भी चैन से नहीं रहा
यह आधा आदमी
और एक दिन
सबकी चिंता लिए-लिए
मरा जब यह आधा आदमी
आधा ही मरा
अंटकी रहीं सांसें अंतिम क्षणों तक
पहुंचना चाहता था गांव जैसे-तैसे
गांव-शहर शहर-गांव करते-करते
उखड़ गए उसके प्राण
और उसकी अंतिम इच्छानुसार ही
करना पड़ा परिवारवालों को
श्राद्ध, गांव में।
पेशेवर आदमी भी (27.11.2016)
पेशेवर आदमी भी
हमारे कुछ पत्रकार भाइयों को
यहां कन्फ्यूजन है
कि जब कोई मर रहा हो लाइव
तब वे क्या करें?
बनाते रहें सनसनी-खेज खबरें
या फिर उसकी जान बचाएं?
आखिर एक पेशेवर पत्रकारिता क्या करे?
तो मैं उनसे पूछना चाहता हूं
कि जब मर रहे होंगे तुम्हारे मां-बाप कहीं
बचाओ-बचाओ कर भाग रही होगी पत्नी सड़क पर
डूब कर मर रहा होगा तुम्हारा बेटा या बेटी कहीं
या कोई भाई तुम्हारा-
ढो रहा होगा दाना मांझी* की तरह
कंधे पर लिए पत्नी की लाश
कई किलोमीटर तक अकेले ही
तब तुम क्या करोगे?
बनाते रहोगे सनसनीखेज खबरें?
चलाते रहोगे उसे टीवी पर दिन-रात?
पीटते रहोगे संवेदना के मर जाने की ढोल?
या समाज की पोल खोलते खोलते
स्वयं नंगे हो जाओगे?
मित्रों!
कोई पेशेवर आदमी भी
बाहर नहीं है
आदमी की परिभाषा से।
*सरकारी एंबुलेंस न मिलने के कारण उड़ीसा के दाना मांझी ने
कपड़े में लिपटे अपनी पत्नी की लाश को कई किलोमीटर तक अकेले ही कंधे पर लिए ढोया
था। साथ में उसकी एक बच्ची चल रही थी। सारा समाज तमाशबीन बना रहा है। मीडिया ने
पहले क्लीप बनायी फिर मदद भी की थी। पर इस घटना ने सबको झकझोरते हुए सभ्य समाज के
सामने कई प्रश्न उठाए।
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